हिंदी साहित्येतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ

              

        साहित्येतिहास लेखन की पद्धतियाँ        

    

• हिदी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से उल्लेख्य ग्रंथ भक्तिकाल से हो मिलने लगते हैं। जैसे गोकुलनाथ कृत 'चौरासी वैष्णवन की वार्ता 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' और नाभादास कृत 'भक्तमाल'। किंतु कवियों का विवरण मात्र होने से इन्हें इतिहास-ग्रंथ नहीं माना जाता।

• हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा का आरंभ 19वीं शती में गार्सी द तासी कृत 'इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी'

 से माना जाता है। • हिंदी साहित्य के इतिहास-लेखन को चार पद्धतियाँ मुख्य रही हैं-


1. वर्णानुक्रम पद्धति


• इसमें रचनाकारों का विवरण उनके नाम के प्रथम वर्ण के क्रम से दिया जाता है। उदाहरण के लिये, तुलसीदास, चिंतामणि और केदारनाथ सिंह का समय भले ही भिन्न हो कितु उनका क्रम इस प्रकार होगा- केदारनाथ सिंह, चितामणि, तुलसीदास।


• इसे ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत माना जाता है क्योंकि यह इतिहास-लेखन नहीं, शब्दकोश लेखन की तरह होती है।


• गार्सा द तासी और शिवसिंह सेंगर ने इसका प्रयोग किया है।


2. कालानुक्रम पद्धति 


• इसमें रचनाकारों का  विवरण उनके काल (समय) के क्रम से दिया जाता है। रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाया जाता है। • इतिहास-लेखन की दृष्टि से इसे भी अधूरा समझा जाता है क्योंकि इस पद्धति से लिखे ग्रंथ भी


• जॉर्ज ग्रियर्सन और मिश्रबंधुओं ने इसका प्रयोग किया है। यद्यपि ग्रियर्सन में विधेयवादी पद्धति के कुछ आरंभिक सूत्र भी मिलने लगते हैं।


3. वैज्ञानिक पद्धति


• इसमें ग्रंथकार निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर तथ्य संकलन कर उसे क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता है। 

• इतिहास-लेखन सिर्फ तथ्य संकलन की नहीं, बल्कि उनकी व्याख्या एवं विश्लेषण की भी मांग करता है। अतः इस पद्धति को भी अपरिपक्व माना जाता है।


4. विधेयवादी पद्धति


 • फ्रेंच विद्वान   तेन (Taine) ने इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में स्थापित किया। तेन ने इस पद्धति को तीन शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया जाति (Race), वातावरण (Milieu) और क्षण विशेष (Momen इस पद्धति के अनुसार, 'किसी भी साहित्य के इतिहास को सशक्तव्य के लिये उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजि वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन-विश्लेष आवश्यक है।'

• इसे इतिहास-लेखन की व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित पद्धति मार गया है, क्योंकि, 'इसके द्वारा साहित्य को विकास-प्रक्रिया को बहुर कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।'

 - हिंदी में सर्वप्रथम रामचंद्र शुक्ल ने इस पद्धति का प्रयोग किए।

उनके बाद रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह आदि प्रख्यात साहित्येतिहासकारों ने इस पद्धति को आगे बढ़ाया। यह तथ्य उनके निम्नलिखित उद्धरणों से स्पष्ट होता है-


* रामचंद्र शुक्ल : "प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता को चित्तवृत्तियों का सचित प्रतिबिंब होता है।... आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उसका सामंजस्य बैठना हो साहित्य कहलाता है।"


* रामस्वरूप चतुर्वेदी "कवि का काम यदि 'दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास-प्रक्रियः में न्यायोचित दिखा सकना।


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