आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति काल नोट्स

     

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत हिंदी साहित्य के इतिहास से



      प्रकरण-3 

[निर्गुण धाराः प्रेममार्गी (सूफी) शाखा]


• "इस काल के निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्त्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मिलानेवाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है।"


• "सूफियों के अनुसार यह सारा जगत एक ऐसे रहस्यमय प्रेमसूत्र में बँधा है जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है।"


• "ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है- जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की आँख नहीं खुल सकती।"


• "कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन दशाओं को सामने रखा जिसका मनुष्यमात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है।"


• "हिंदू-हृदय और मुसलमान हृदय आमने-सामने करके अजनबीपन मिटाने वालों में इन्हीं का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओं की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया।"


• आचार्य शुक्ल ने प्रेममार्गी (सूफी) शाखा के कवियों का इस क्रम में वर्णन किया है- कुतबन, मंझन, मलिक मुहम्मद जायसी, उसमान, शेख नवी, कासिम शाह, नूर मुहम्मद।


कुतबन

रचना :— (मृगावती)


• "इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच-बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास हैं।"


मंझन

रचना:—(मधुमालती)


• "मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों (अर्द्धालियों) के उपरांत एक दोहे का क्रम रखा गया है। पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है। आध्यात्मिक प्रेमभाव की व्यंजना के लिये प्रकृति के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है। कहानी भी कुछ अधिक जटिल और लंबी है।"


• "जन्म-जन्मांतर और योन्यंतर के बीच प्रेम की अखंडता दिखाकर मंझन ने प्रेमतत्त्व की व्यापकता और नित्यता का आभास दिया है।"


मलिक मुहम्मद जायसी

रचना:—पद्मावत 

• "ग्रंथारंभ में कवि ने मसनवी की रूढ़ि के अनुसार 'शाहेवक्त' शेरशाह की प्रशंसा की है।"


• "जायसी की अक्षयकीर्ति का आधार है 'पद्मावत', जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और 'प्रेम की पीर' से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी दृढ़ता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।"


• "कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।"


• "पद्मावत' में प्रेमगाथा की परंपरा पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त मिलती है। यह उस परंपरा में सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी कहानी में भी विशेषता है। इसमें इतिहास और कल्पना का योग है।"


• जायसी ने यद्यपि इतिहास प्रसिद्ध नायक और नायिका ली है. पर उनहोंने अपनी कहानी का रूप वही रखा है जो कल्पना के उत्कर्ष के द्वारा साधारण जनता के हृदय में प्रतिष्ठित था। इस रूप में इस कहानी का पूर्वार्द्ध तो विल्कुल कल्पित है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है।"


• "प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके व्योरों से भी साधना के मार्ग, उसकी कठिनाइयों और सिद्धि के स्वरूप आदि की जगह-जगह व्यंजना होती है।"


• "यद्यपि पद्मावत की रचना संस्कृत प्रबंधक्काव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नहीं है. फारसी की मसनवी शैली पर है, पर श्रृंगार, वीर आदि के वर्णन में चली आती हुई भारतीय काव्यपरंपरा के अनुसार ही है। इसका पूर्वाद्धं तो एकांत प्रेममार्गी का ही आभास देता है, पर उत्तरार्द्ध में लोकपक्ष का भी विधान है।"


• "पद्मिनी के रूप का जो वर्णन जायसी ने किया है वह पाठक को सौन्दर्य की लोकोत्तर भावना में मग्न करने वाला है। अनेक प्रकार के अलंकारों की योजना उसमें पायी जाती है।"


• "जायसी के पहले के कवियों ने पाँच-पाँच चौपाइयों  के पीछे एक दोहा रखा है. पर जायसी ने सात चौपाइयों का क्रम रखा।"


मसनवी शैली- यह प्रबंध काव्य की फारसी शैली है। इन रचनाओं के आरंभ में ईश्वर की स्तुति, समकालीन शासक का उल्लेख, पूरी रचना का एक ही छंद में होना, रचना का सर्गों में विभक्त न होना, प्रेम की फारसी पद्धति (नायक के पक्ष में विरह का अधिक होना तथा लोक निरपेक्ष प्रेम की विद्यमानता) का होना इस शैली की संक्षिप्त विशेषताएँ हैं।

 कड़वक बद्ध बंद परंपरा —पाँच या सात चौपाइयों पर एक दोहे का धत्ता देने की शैली को कड़वक पद्धति कहते हैं। यह पद्धति फारसी काव्यों से नहीं, बल्कि अपभ्रंश काव्य के दौरान स्वयंभू के काव्य से विकसित हुई।


उसमान

रचना:—(चित्रावली)


• "कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया जो-जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे हैं उन विषयों पर उसमान ने भी कुछ कहा है। कहीं-कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही हैं। पर विशेषता यह है कि कहानी बिल्कुल कवि की कल्पित है।" 

• इन्होंने भी जायसी की तरह सात चौपाइयों का क्रम रखा है, पाँच चौपाइयों का नहीं।


शेखनबी 

रचना:—(ज्ञानदीप)


शुक्लजी ने शेखनबी के विषय में माना है कि "इनसे प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिये। यहाँ प्रेमगाथा परंपरा समाप्त होती है। आगे भी इस शैली की कुछ रचनाएँ आयीं, पर जनता पर उनका वैसा प्रभाव नहीं पड़ता।"


कासिमशाह 

रचना:—(हंस जवाहिर)


• "इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है। इन्होंने जगह-जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नहीं है।"

नूर मुहम्मद 

रचना:—(इंद्रावती, अनुराग बाँसुरी)


"नूर मुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्य-भाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियों से अधिक था।"


इंद्रावती


• "कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच-पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है।"


• "इसी ग्रंथ को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिये।"


अनुराग बाँसुरी


• "इसकी भाषा सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृतगर्भित है।"


• "हिंदी भाषा में रचना करने (इंद्रावती की) के कारण शायद इन्हें उपालंभ सुनने को मिलता था कि तुम मुसलमान होकर हिंदी भाषा में रचना करने क्यों गए।


• "संवत् 1800 तक आते-आते मुसलमान हिंदी से किनारा खींचने लगे थे। हिंदी हिंदुओं के लिये छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं, उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था।"


• "कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्त्वज्ञान संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों आदि को लेकर पूरा अध्यवसित रूपक (एलेगरी) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता है, पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक हैं।"


• "चौपाइयों के बीच-बीच में इन्होंने दोहे न रखकर बरवै रखे हैं। प्रयोग भी ऐसे-ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियों में नहीं आए हैं। काव्य भाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं-कहीं ब्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं।"


• शुक्ल जी ने यहीं सूफी आख्यान काव्यों की अखंडित परंपरा की समाप्ति मानी है।


• 'प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति- शेख नबी से मानने', 'शेखनवी से प्रेमगाथा परंपरा समाप्त समझनी चाहिये', का अर्थ यह है कि इनके बाद यह शाखा क्षीण पड़ जाती है और कम संख्या में प्रेममार्गी कवि मिलते हैं। इनके बाद शुक्ल जी ने कासिमशाह व नूर मुहम्मद का जिक्र किया है, जहाँ वे नूर मुहम्मद की 'इन्द्रावती' को सूफी पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानते हैं। नूर मुहम्मद की चर्चा के बाद ही शुक्ल जी लिखते हैं-


• "सूफी आख्यान काव्यों की अखंडित परंपरा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है।"


• "साहित्य की कोई अखंड परंपरा समाप्त होने पर कुछ दिन तक परंपरा की कुछ रचनाएँ इधर-उधर होती रहती हैं। इस ढंग की पिछली रचनाओं में 'चतुर्मुकुट की कथा' और 'युसुफ-जुलेखा' उल्लेख योग्य हैं।"

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