रस का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप।। ras ki paribhasha or uska swaroop

रस का अर्थ परिभाषा एवं स्वरूप

रस का परंपरागत अर्थ

रस शब्द का परंपरागत अर्थ और प्रयोग हमारे यहाँ अनादिकाल से होता रहा है। इस शब्द के अनेक अर्थ मिलते हैं। ऋग्वेद और वैदिक साहित्य में यह शब्द जल, सार, वीर्य, स्वाद, विष, मधुर, तिक्तादी, षड्स, सोमरस, सूरा, द्रव, तरल, सौदर्य, आनंद, सरसता, वाणी का रस, परमात्मा  आदि अनेक अर्थों में दिखाई देता हैं। शब्दकोश में भी इस शब्द के अनेक अर्थ दिये गये हैं। जैसे – गंध, स्वाद, विष, राग, श्रृंगार आदि के अर्थ में रस का बोध होता है।  

यहाँ अलग-अलग क्षेत्र के अनुसार भी रस शब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तत्व के रूप में होता है। जैसे खाद्य- पदार्थों के क्षेत्र में रस मधुरतम तरल पदार्थ का प्रतिक है। संगीत के क्षेत्र में कानो द्वारा प्राप्त ‘आनंद का नाम ‘रस’ है। मेडिकल के क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट प्राणदायी औषधियाँ रस बन जाती हैं। अध्यात्म के क्षेत्र में स्वयं परमात्मा को ही ‘रस’ कहा गया है।‘रसों वै सः’ अर्थात् रस ही परमात्मा है। इसी तरह साहित्य के क्षेत्र में भी साहित्य के आस्वादन से प्राप्त आनंदानुभूति को ही रस की संज्ञा दी हुई है। स्पष्ट है कि साहित्य का आनंद ही या काव्यानंद ही 'रस' है।

आचार्य भरत के नाट्य-शास्त्र के अनुसार” “नहि रसादृते कश्चिदर्थ: प्रवर्तते अर्थात् रस के बिना किसी अर्थ का जब प्रवर्तन ही नहीं होता तो फिर किसी काव्य की कल्पना ही कैसे की जा सकती है। यहाँ तो रस को जीवन का सार और जीवन को रस- प्राप्ति के लिए ही स्वीकार किया गया है। इसलिए हम कह सकते हैं कि रस का अर्थ आनंद या सरसता है। साहित्यचार्यों के अनुसार ‘रस ही काव्य की आत्मा है।

रस का व्युत्पत्तिमूलक अर्थ :

रस क्या है ? इस शब्द की व्युत्पत्ति एवं स्वरूप क्या है ? इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का अनवरत प्रयास किया गया है। यह प्रयास दर्शन, जीवन-दर्शन, योग-ज्ञान, आदि से लेकर काव्य शास्त्र तक में किये गये हैं। ‘रसों वै सः’ अर्थात् रस ही परमात्मा है। तैत्तिरीय उपनिषद में “वह रस-रूप है, वह ब्रम्ह है,” ऐसा कहा है।

इसके पश्चात आगे चलकर संस्कृत के आचार्यो ने रस की व्युत्पत्ति बताते हुए लिखा है “रस्यते इति रस:” अर्थात् जिसका अस्वादन किया जा सके, वही रस होता है। इन आचार्यों ने एक और व्युत्पत्ति बताई है ‘सरते इति रसः’ अर्थात् जो बहे वह रस है। बहने का मतलब द्रवरूप पदार्थ से है। वेदों में रस की व्युत्पत्ति ‘दधान: कलशे रसम्’ यहाँ रस सोमरस का पर्याय बनकर आया है। शतपथ ब्राम्हण में ‘मधु’ के अर्थ में रस का शब्द प्रयोग मिलता है। “रसों वै मधु” कहा गया है। इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीनकाल से ही यह शब्द प्रयोग होता रहा है। आगे तैत्तिरीय उपनिषद में कहा गया है “रसो वै सः रसं ह्योवायं लब्ध्वाsनन्दी भवति”। कहा जा सकता है कि जिस प्रकार साधक साधना के क्षेत्र में चरमोत्कर्ष पर पहुचकर अनिर्वचनीय, अलौकिक आनंद की अनुभूति करता है, उसी प्रकार काव्य से भी एक अनिर्वचनीय अनुभूति प्राप्त हुआ करती है l उसकी सुंदर अभिव्यक्ति में ही आनंद है, क्योंकि वह अनुभूति सुंदर ढंग से अभिव्यक्त होने के कारण सरस है। यह सरसता भी काव्य की महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

रस की परिभाषा

प्राचीन ग्रंथो में रस की परिभाषा

1. तैत्तिरीय उपनिषद में ‘रसों वै सः’ अर्थात् रस ही परमात्मा है l

2. वेदों में रस की व्युत्पत्ति ‘दधान: कलशे रसम्’ यहाँ रस सोमरस का पर्याय बनकर आया है l

3. शतपथ ब्राम्हण में ‘मधु’ के अर्थ में रस का शब्द प्रयोग मिलाता है l “रसों वै मधु” कहा गया है l

संस्कृत के आचार्यों की रस की परिभाषा

1. प्राचीन रस के आचार्यों में सर्व प्रथम भरतमुनि (1 वी सदी) ने रस का विवेचन अपने ‘नाट्यशास्त्र में किया है । उनके अनुसार – विभावानुभाव व्याभिचारी संयोगाद्रसनिष्पत्ति’ अर्थात् विभाव अनुभाव और व्याभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है l

2. भामह : यह अलंकारवादी आचार्य रहे हैं इन्होंने ‘युक्त लोकेन स्वभावेन रसैच्य सकले’ कहकर रस के महत्व को स्वीकार किया है l

3. आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है। उनका कथन है - वाक्य रसात्मकं काव्यम्- रसात्मक वाक्य ही काव्य है।

4. अभिनव गुप्त के अनुसार – ‘सर्वथा रसनात्मक वीतविघ्न प्रतितिग्राह्यो भाव एवं रस:’ कहकर रस की महत्ता प्रतिपादित की है l

5. वामन के अनुसार – ‘दीप्त रसत्वं कांति:’ कहकर परिभाषित किया है l

6. मम्मट भट्ट ने ‘काव्य प्रकाश' नामक ग्रंथ लिखकर उन्होंने कहा है कि आलम्बन विभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का स्थायी भाव ही रस-दशा को प्राप्त होता है।

हिंदी के विद्वानों की परिभाषा

1. आचार्य श्यामसुंदर दास के अनुसार “स्थायी भाव जब अनुभाव एवं संचारी भावों के योग से अस्वाद करने योग्य हो जाता है, तब सहृदय प्रेक्षक (श्रोता)के हृदय में रस रूप में अस्वादन होता है”

2. डॉ. विश्वभरनाथ के अनुसार - “भावों के रचनात्मक समन्वय का नाम ही रस है 

 3. आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार “जिस भांति आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी भांति ह्दय की मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है ।

4. रामचंद्र-गुणचंद्र के अनुसार – 'सुख दुखात्मको रस:’ रस सुख दुखात्मक होता है l


रस का स्वररूप

असल में रस का स्वरूप और स्रोत हमेशा प्रत्येक व्यक्ति के अपने भीतर ही समाया रहता है l वह बाहर से आरोपित होनेवाली कोई वस्तु नहीं है l विशेष प्रकार की जागतिक अनुभूतियाँ ही व्यक्ति-चेतना में अन्त:स्यूत होकर रस-रूप में परिणत हो जाया करती है l तभी तो हम किसी सुंदर दृश्य को निहार कर हम लोग करुणा को आविभूत हो उठा करते हैं l यदि हमरे भीतर रस-रूप अनुभूति की क्षमता नहीं होगी, तो कोई भी जागतिक स्थिति हमें प्रभावित नहीं कर पायेगी । अनुभूति के क्षण में हमारी अनेकविध चेष्टाएँ ही रस-स्वरूप का निर्माण करती है l हमारे आचार्यों ने रस निष्पत्ति को लेकर जमकर चर्चाये की हैं l पर रस के स्वरूप विधान की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया है l आचार्य भरतमुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ में  रस-स्वरूप के निर्धारण की दृष्टि से एक वार्तिका मिलती है वह इस प्रकार है :-

‘विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्ति’ अर्थात् विभाव, अनुभाव, और व्यभिचारी (संचारी) भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है l इनके बाद ‘काव्य दर्पण’ के रचयिता मम्मट और ‘अभिनव भारती के रचयिता आचार्य अभिनव गुप्त ने भी रस स्वरूप का विवेचन करने की कोशिश की है l ये मूलतः शैव द्वैत दर्शन के समर्थक थे l इन्होंने मात्र आनंद को ही काव्य विषय या रस-विषय माना है, क्योकि भारतीय दर्शनों में परमात्मा और उसके अंश को आत्मा को आनंद स्वरूप माना गया है l इनके पश्चात् अनेक विध आचार्योने रस- स्वरूप निर्धारण करने की कोशिश की है l इन सभी आचार्यो में ‘साहित्य-दर्पण’ के रचियेता आ. विश्वनाथ ने किया हुआ रस-स्वरूप का विवेचन सबसे अधिक उपयुक्त और व्यवस्थित है l    

आ. विश्वनाथ ने उनके संकृत श्लोक में कहा है –

“सत्त्वोद्रेकादखंडस्वप्रकशानंदचिन्मय:

वेदांतर स्पर्श्शून्यो ब्र्ह्मस्वादसहोदर: ll

“लोकोत्तरचमत्कारप्राण: कैश्चित्प्रमातृभि: l

स्वाकारवदभिनत्वेनायमास्वाध्यते रस: ll”   

अर्थात् 1 रस अखण्ड है l 2. रस स्वयं प्रकाशी है l 3. रस का अपने अभिन्न रूप में आस्वादन 4. रस का चिन्मय रूप 5. रस का वेदांतर स्पर्शशून्य स्वरूप 6. रस का ब्रम्हास्वाद सहोदर स्वरूप 7. रस की प्राणवत्ता लोकोत्तर चमत्कार 8. रस की लोकोत्तर आल्हद्मयता l इसी के साथ इन्होंने यह भी कहा कि प्रमाता (सहृदय) द्वारा रस तभी आस्वादित किया जाता है, जब उसके सत्त्व गुण का उद्रेक होता है l यह कैसे होता है इस पर विचार करना आवश्यक है l

सत्त्वगुण का उद्रेक इसका अर्थ है – सत्त्व मन का उद्रेक (विस्फुरण) सत्त्व उस मन को कहते हैं जो रजोगुण और तमोगुण से अस्पृष्ट हो l मन शब्द यहाँ लाक्षणिक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है l इसका लक्ष्यार्थ है मनोवृत्ति, मन का धर्म अथवा मन का गुण l सत्त्व के उद्रेक का तात्पर्य है उक्त दोनों विकारोत्पदक गुणों से भिन्न एक एक अन्य गुण का विस्फुरण, जो विकार का सूचक न होकर उदात्त भावना का सूचक है l रस प्रसंग में इस स्थिति से यह तात्पर्य लिया जा सकता है कि सहृदय सांसारिक राग-द्वेष जैसी भावनाओं से मुक्त हो जाता है l उसके ऐन्द्रियविषय लौकिक धरातल से ऊपर उठकर परिष्कृत एवं उदात्त हो जाते हैं l प्रमाता ( सहृदय) रस का आस्वाद केवल इसी स्थिति में ही कर पाता है ।


.रस के स्वरूप को सूचित करनेवाले उपर्युक्त तत्वों को समझना जरुरी है l

1 रस अखण्ड है l

इसका अर्थ यह है कि रस उस स्थायी भाव का परिष्कृत नाम है, जिसका संयोग विभाव, अनुभाव, संचारिभाव इन तीनों के समन्वित रूप के साथ हो, इनमें से किसी एक या दो के साथ नहीं l इस स्थिति में किसी एक अंश को भी एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता l इसी कारण रस अखण्ड है l

2. रस स्वप्रकाशी है l

जिस प्रकार सूर्य को दिखाने के लिए अन्य किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती, उसी प्रकार रस भी स्वयं प्रकाशित है l जिस प्रकार ब्रम्हा स्वयं प्रकाशमान तत्व है, उसी प्रकार रस भी स्वयं प्रकाशमान होता है l रस आत्मचेतना के प्रकाश से प्रकाशित होता है l

3. रस का अपने अभिन्न रूप में आस्वादन

अर्थात् रस जिस रूप में आस्वादित किया जाता है, उससे भिन्न वह किसी प्रकार की अनुभूति नहीं है l क्योंकि सहृदय की निजी अनुभूति ही रस रूप में परिणत होती है l इसलिए एक की अनुभूति दूसरे की अनुभूति कभी नहीं बन पाति है l

4. रस का चिन्मय रूप ( पूर्ण ज्ञानमय, परमेश्वर )

अर्थात् रस में चेतनता प्रमुख है l तात्पर्य यह है कि रस आत्मा के समान सचेतन अथवा प्राणवान आनंद है l वह निद्रा, मध्यपान आदि से उत्पन्न लौकिक आनंदों के समान जड़ आनंद नहीं है l

5. रस का वेदांतर स्पर्शशून्य स्वरूप

रस के आस्वाद के समय अन्य किसी ज्ञान या वेद का स्पर्श तक नहीं हो पता l इस स्थिति में जानी हुई या जानने योग्य सभी वस्तुओं के ज्ञान का विस्मरण हो जाता है l और इतनी तन्मयता आ जाती है कि सहदय को आत्मसत्ता भी रसमय प्रतीत होने लगती है l इस स्थिति में इतनी तन्मयता आ जाती है कि विश्व के किसी भी पदार्थ का हमें अहसास नहीं होता l एक तरह से देश, काल, लिंग-भेद आदि बन्धनों से परे होकर रसानुभूति में विलय हो जाता है l

6. रस का ब्रम्हास्वाद सहोदर स्वरूप (सहोदर = एक ही गर्भ से उत्पन्न)

रस का ब्रम्हास्वाद नहीं, अपितु उसका सहोदर कहा गया है l अर्थात् रस का आनंद ब्रम्हस्वाद के समान अवश्य है l ब्रम्हस्वाद में जिस प्रकार अलौकिक आनंद की अनुभूति हुआ कराती है, कुछ उसी प्रकार रसानुभूति भी अलौकिक आनंद प्रदान कराती है l  अंतर यही है कि ब्रम्हास्वाद में लौकिक विषयों का पूर्ण तिरोभाव होता है, पर रसास्वाद में नहीं l इसलिए वह ब्रम्हस्वाद सहोदर है l

7. रस की प्राणवत्ता लोकोत्तर चमत्कार

लोकोत्तर चमत्कार का अर्थ है – विस्मय, अर्थात् चित्त का विस्तार l स्पष्ट शब्दों में कहे तो चमत्कार चित्त का विकासजनक आनंद है l रस का प्राण यही आनंद है, किन्तु वह लोकोत्तर होना चाहिए l इस प्रकार ‘रस लोकोत्तर चमत्कार प्राण’ है l इसका समग्र रूप में अर्थ है कि रस लोकोत्तर एवं चित्त का विकास-जनक आनंद से युक्त होता है l चित्त विकास जनक आनंद तो मानव को अन्य लौकिक घटनाओं में भी उपलब्ध है, किन्तु काव्यजन्य आनंद लोकोत्तर होता है l

8. रस की लोकोत्तर आल्हद्ममयता (लोकोत्तर = असाधारण, विलक्षण )

रस का आल्हाद है तो लौकिक, पर वह इस लोक के आल्हदों से सर्वोपरि है l उदाहरण के लिए उत्तम पकवान्न या स्वादिष्ट पेय की अपेक्षा रस जन्य आनंद कहीं अधिक उत्तम होता है l

 

रस की स्थिति


रस की स्थिति के बारेमें कहा जाता है कि यह काव्यानंद से इतर लौकिक भावनाओं से उत्पन्न सुख एवं दुःख, और दूसरी ओर अध्यात्मिक क्षेत्र के बीच की मानी जाती है l लौकिक भावनाओं से मनुष्य को सुख भी मिलता है और दुःख भी l रस के आनंद को सुखात्मक ही माना गया है पर ऐसा नहीं है l यह आनंद उच्च कोटि का लोकोत्तर आनंद कह सकते हैं l अध्यात्मिक क्षेत्र के आनंद को ही अलौकिक आनंद कह सकते हैं l

 विषय को आसानी से समझने के लिए उक्त तीन प्रकार के आनंद को क्रमशः 1. विषयानंद 2. काव्यानंद और 3. ब्रह्मानंद कहा जाता है l 1. विषयानंद लौकिक वृत्तियों पर अलग-अलग लौकिक पदार्थ से उत्त्पन्न सुख-सामग्री पर निर्भर होता है l इसे हम अपनी इच्छा से अर्जन और विसर्जन करते हैं l दर्शन के क्षेत्र में इसे वास्तविक आनंद न मानकर अनंदाभास कहा गया है l 2. ब्रह्मानन्द, विषयानंद के विपरीत, वास्तविक आनंद है l यह विषयानंद के समान प्रवृत्तियों पर आधारित होता है, इसकी प्रतीति वृत्ति-शून्य होती है l 3. काव्यानंद इन दोनों के बीच का आनंद है, फिर भी वह ब्रह्मानंद की ओर अधिक उन्मुख है l

क) काव्यानंद विषयानंद से इस कारण भिन्न है कि यह लोक के वास्तविक पदार्थों पर अवलंबित न रहकर कवि प्रतिभा जन्य काल्पनिक पदार्थों पर अवलंबित होता है, और उनमें भी लोक का विशिष्ट तत्व साधारण रूप ग्रहण कर लेता है l फलत: यह आनंद किसी विशेष पदार्थ से संबंध न रहने के कारण सार्वभौमिकता की उच्च भाव भूमि पर जा पहुंचता है l इसके अतिरिक्त काव्यानंद में विषयानंद के समान अर्जन विसर्जन की प्रवृत्ति भी नहीं होती l

ख) काव्यानंद ब्रह्मानंद से भी विभिन्न है, क्योंकि उधर ब्रह्मानंद विभिन्न उपाधियों में विभक्त नहीं हो सकता l इधर काव्यानंद रति, शोक आदि विभिन्न उपाधियों में विभक्त हो सकता है, इसमें श्रृंगार, हास्य, करूण आदि रसों के प्रकारों में बुद्धि बनी रहती है l

इन तीनों प्रकार के आनंदों के पारस्परिक वैषम्य का कारण यह है कि रसेत्तर लौकिक आनंद में मानव के रजोगुण (राजसी ठाठ-बाठ) और तमोगुण (अंधकार, अज्ञान आदि गुण) आविर्भूत (उत्पन्न, अवतरित) रहते हैं सत्वगुण (अच्छे कर्म की ओर प्रवृत्त करना) तिरोभूत (छिपा हुआ, गायब)  रहता है ‘तिरोभूत’ शब्द का तात्पर्य नितांत विनष्ट होना नहीं है- दब जाना है l अर्थात् सत्वगुण अभी शेष बना रहता है l इधर रस की स्थिति में उक्त रूप परिवर्तित हो जाता है l सत्वगुण आविर्भूत हो जाता है, और शेष दो  तिरोभूत हो जाते हैं, पर बने अवश्य रहते हैं l इन दोनों प्रकार के आनंदों में ये सभी गुण किसी न किसी मात्रा में बने रहते हैं, अतः यह लौकिक आनंद हैं, पर उधर अध्यात्मिक क्षेत्र में केवल सत्त्वगुण ही शेष रहता है, शेष दोनों विनष्ट हो जाते हैं, अतः यह अलौकिक है, तथा उक्त दोनों लौकिक आनंदों से भिन्न प्रकार का है l


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