नाटक में क्षेत्रीय हिन्दी का प्रयोग

       नाटक में क्षेत्रीय हिन्दी का प्रयोग


भाषा के चार स्तर माने जाते हैं। 1. बोलचाल की भाषा, 2. गद्य की भाषा, 3. पद्य की भाषा, और 4. सृजनात्मक गद्य की भाषा। यह भी प्रायः देखा गया है। कि तर्कपूर्ण निबन्ध एवं विचारात्मक कृतियों का गद्य बोलचाल की भाषा से भिन्न होता है। ऐसा होना भी चाहिए। जैसे बातचीत करने और पढ़ने में अन्तर होता है। उसी प्रकार सामान्य बोलचाल और साहित्यिक गद्य की भाषा में अन्तर होता है।

नाटक के माध्यम से नाटककार अपनी रचना में विशुद्ध जीवन की अभिव्यक्ति करता है। तो यह बात बहुत स्वाभाविक भी है कि उसकी नाटक की भाषा में क्षेत्रीयपन आ जाए। जैसे यदि कोई नाटककार बिहार, पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, दक्षिण भारत या पहाड़ी क्षेत्रों की पृष्ठभूमि पर नाटक लिखता है तो इन नाटकों में वहाँ की भाषा के शब्द, लोकगीत, प्रचलित गालियाँ, तीज-त्योहार आदि स्वाभाविक रूप से आएँगे।


इस आधार पर कहा जा सकता है कि नाटक यह दृश्य या श्रव्य काव्य है जो... प्रत्यक्ष कल्पना को विषय बना सत्य एवं असत्य से समन्वित विलक्षण रूप धारण... करके सर्वसाधारण को आनन्द की उपलब्धि कराता है। नाटक में जीवन की अनुकृति को शब्दगत संकेतों में संकुचित करके उसे सजीव पात्रों द्वारा सप्राण रूप में अंकित किया जाता है। नाटक में फैले हुए जीवन व्यापार को ऐसी व्यवस्था के साथ रखते हैं कि अधिक से अधिक प्रभाव उत्पन्न हो सके।


नाटक और सामाजिकता 'शब्द' एक-दूसरे के पूरंक' हैं। शुरुआत में नाटक लोगों की बोली, लोगों के मनोरंजन के लिए किया गया। परन्तु आज नाटक का स्वरूप समस्या आधारित हो गया है। नाटक में क्षेत्रीय शब्दों या हिन्दी की विभिन्न बोलियों का प्रयोग यह साबित करता है कि नाटक जमीन से जुड़े हुए हैं। इसका बहुत सुन्दर उदाहरण भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'भारत दुर्दशा' नाटक है। भारतेन्दु से पहले तीनों कालों में डिंगल-पिंगल, अपभ्रंश, अवधी एवं व्रज भाषा का साम्राज्य रहा। लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते व्रज कुछ सीमित कवियों तक सिमट कर रह गयी, जिसमें स्वयं भारतेन्दु भी हैं। इनके 'भारत-दुर्दशा' में ब्रज एवं खड़ी बोली • का प्रयोग है। हालाँकि खड़ी बोली के शुद्ध रूप का प्रयोग नहीं है।


इसी कड़ी में आगे सामाजिक समस्याओं पर लिखने वाले उपेन्द्रनाथ अश्क "किसकी बात' में परिवार के सबसे बड़े व्यक्ति जो ब्राह्मण वर्ग से हैं। उनकी भाषा में संस्कृत शब्दों की भरमार है। वहीं उनके बेटे-बहू की भाषा खड़ी बोली से प्रभावित हैं। दूसरी तरफ घर में काम करने वाली नौकरानी बिहारी हिन्दी का प्रयोग करती है।

विष्णु प्रभाकर के नाटक 'टूटते परिवेश' में 1970 के आस-पास के 'हिप्पी कल्चर' की कहानी है। जिसमें परिवार के सभी सदस्यों के एक छत के नीचे रहते हुए भी उन सब की दिशाएँ और राहें अलग-अलग हैं। किसी को भाषा में, तो किसी को अपने घर में सीलन व घुटन अनुभव हो रही है। कोई पात्र बहुत ही अंग्रेजीदां है तो कोई पात्र परिवार को बचाने के लिए नपे-तुले शब्दों का प्रयोग करता है। यह नाटक आज का नाटक है। इसकी भाषा में हिन्दी और अंग्रेजी का प्रयोग हुआ है।


जयशंकर प्रसाद का 'ध्रुवस्वामिनी' नाटक संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली का सुन्दर उदाहरण है। इस नाटक का कथानक इतिहास प्रेरित है। इस नाटक में राजघरानों की भाषा अर्थात् संस्कृत बहुल वाक्यों का प्रयोग किया गया है। जैसे पात्र हैं वैसी ही भाषा का प्रयोग है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो 'ध्रुवस्वामिनी' की भाषा में साहस और ओज दिखाई देता है तो वहीं रामगुप्त की भाषा एक कायर और डरपोक की भाषा है।


भारतेन्दु के 'नीलदेवी' नाटक में उन्होंने प्रारम्भ में दुर्गा सप्तसती के कुछ श्लोक उद्धरित कर देवी का आह्वान किया है। वहीं पूरे नाटक में उन्होंने खड़ी बोली एवं ब्रज का प्रयोग किया है। हिन्दी के सामाजिक एवं समस्यापरक नाटककारों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का 'बकरी' नाटक आज के राजनीतिक परिदृश्य की जीवन्त प्रस्तुति है। जिस तरह की भाषा का प्रयोग नेतागण आम जनता को मूर्ख बनाने के लिए करते हैं वैसी ही भाषा सर्वत्र दिखाई देती है। अंधविश्वासी जनता अपने गुरु की बात को सच मानकर अंधभक्त होने का प्रमाण देती है और किसी भी प्रकार का विश्वास नहीं करती क्योंकि विश्वास आस्था का है।


स्वेदश दीपक का 'कोर्ट मार्शल' नाटक में मिस्टर कपूर के द्वारा पंजाबी शब्दों एवं गालियों का प्रयोग किया गया है। जिससे ये पता लगता है कि यह चरित्र पंजाबी वर्ग से संबन्ध रखता है। भीष्म साहनी के 'आलमगीर' नाटक में मुगलकालीन कथानक को दर्शाया है। इसीलिए यह जरूरी हो जाता है कि आप यदि आज के दौर में भी इतिहास पर आधारित नाटक लिखते हैं तो भाषा आपको उस तत्कालीन समय की ही प्रयोग करनी है। इसी प्रकार का एक अन्य उदाहरण भीष्म साहनी का 'माधवी' नाटक भी है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि नाटक की भाषा के क्षेत्रीय रूप के माध्यम से यही प्रतिध्वनितं होता है कि जिस काल, समय एवं स्थान का नाटक है। उस काल, समय, स्थान के शब्द तीज-त्योहार स्वाभाविक रूप से नाटककार की भाषा में आ जाते हैं। इसका एक और उदाहरण प्रेमचंद के द्वारा लिखने की शुरुआत उर्दू में करना और फिर हिन्दी की तरफ़ रूख करना है, लेकिन उनके उपन्यास और कहानियों में उर्दू शब्दों की भरमार है।।

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