हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा

 हिन्दी साहित्येतिहास लेखन की परंपरा

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हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का वास्तविक आरम्भ 19वीं शताब्दी से माना जाता है।

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखकों में जो उल्लेखनीय हैं, उनका विवरण निम्नानुसार है-

1इस्तवार दा ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी' 

 (गार्सा द तासी)

• दो भागों में है- 1839 ई. (प्रथम भाग)

                     1847 ई. (द्वितीय भाग)

• दूसरा संस्करण 1871 ई. में आया। इसमें तीन खंड कर दिये गए।


• इसमें उर्दू और हिंदी के 738 कवियों का विवरण उनके अंग्रेजी वर्ण के क्रम से दिया गया था। केवल 72 कवि हिंदी से संबंधित थे।

• यह फ्रेंच भाषा में लिखा गया था। 'ऐन्दुई' का अर्थ 'हिंदवी' (हिंदी) और 'ऐन्दुस्तानी' का 'हिंदुस्तानी' (उर्दू) था। इसे ब्रिटेन और आयरलैंड की प्राच्य साहित्य-अनुवादक समिति की ओर से पेरिस में प्रकाशित किया गया था, जिसमें काल-विभाजन और नामकरण का कोई प्रयास नहीं किया गया था।

 • डॉ. लक्ष्मीसागर वाष्र्णेय ने इस ग्रंथ में वर्णित हिंदी रचनाकारों संबंधी सामग्री का हिंदी अनुवाद 'हिंदुई साहित्य का इतिहास' शीर्षक से 1952 ई. में प्रकाशित कराया।


2 तजाकिर-ई-शुअरा-ई-हिंदी'(1848 ई.)

(मौलवी करीमुद्दीन) 

• देहली कॉलेज द्वारा प्रकाशित इस ग्रंथ में 1004 कवियों का विवरण दिया गया है जिनमें 62 कवि ही हिंदी से संबंधित हैं।

• इस ग्रंथ का महत्त्व इस बात में है कि इसमें सर्वप्रथम कालक्रम का ध्यान रखा गया है। किंतु नामकरण नहीं किया गया है।

• इसे 'तबकाश्शुअरा' भी कहा जाता है।


3 भाषा काव्य संग्रह' (1873 ई.)

(महेशदत्त शुक्ल) 

• यह हिंदी भाषा में लिखा गया प्रथम हिंदी साहित्येतिहास संबंधी ग्रंथ था।

• यह नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित हुआ था।


4 शिवसिंह सरोज (1883 ई.) में नवल किशोर प्रेस, लखनऊ से प्रकाशित


(शिवसिंह सेंगर) 


● इसे ग्रंथ में सर्वप्रथम हजार से ज्यादा (1003) भाषा कवियों का विवरण दिया गया l यह बाद के इतिहासकारों के लिये आधार भी रहा।

• इसके पूर्वार्द्ध में 838 कवियों की रचनाओं के नमूने तथा उत्तरार्द्ध में 1003 कवियों का जीवन परिचय दिया गया है।

• इसमें वर्णानुक्रम पद्धति का प्रयोग किया गया है। काल विभाजन एवं नामकरण का प्रयास नही किया गया है 

 • इस ग्रंथ को हिंदी साहित्य के इतिहास का 'प्रस्थान बिंदु' कहा गया है।


5 'व मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नॉर्दन हिदुस्तान' (1888) ई. 

 (जॉर्ज ग्रियर्सन) 


इस ग्रंथ का प्रकाशन 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की पत्रिका के  में हुआ था।

• बहुत में विद्वानों ने इसे सही अर्थों में हिंदी साहित्य का पहला इतिहास ग्रंथ माना। 

• इसमें सर्वप्रथम हिंदी साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए हिंदी को संस्कृत-पालि-प्राकृत एवं अरबी-फारसी मिश्रित उर्दू से पृथक किया गया था।

• इसमें पहली बार कवियों को कालक्रमानुसार वर्गीकृत करते हुए उनकी प्रवृत्तियों को उद्घाटित भी किया गया 

 • संपूर्ण ग्रंथ 11 अध्यायों में विभका है तथा प्रत्येक अध्याय एक काल का सूचक है। हर अध्याय का नामकरण भी किया गया है।

• इसमें कल 952 कवियों को शामिल किया गया है, जिनमें से 886 कवियों के विवरण का आधार 'शिवसिंह सरोज' है।

• उन्होंने सर्वप्रथम भक्तिकाल (16वी-17वीं शती) को 'स्वर्ण युग' कहा था।

 • डॉ. किशोरीलाल गुप्त ने इसका अनुवाद 'हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास " के नाम से 1957 ई. में प्रकाशित करवाया। 

• साहित्येतिहास में यह ग्रंथ "नीव का पत्थर " माना जाता है 


6 मिश्रबधु विनोद 

(मिश्रबधु)

प्रथम तीन भाग 1913:ई तथा

 चौथा भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ था।

• इसमें 459। कवियों को शामिल किया गया 

• ग्रियर्सन यद्यपि काल विभाजन एवं नामकरण कर चुके थे किंतु व्यवस्थित रूप में इसका श्रेय मिश्श्रबंधुओं को जाता है। इन्होंने पूरे इतिहास को पाँच कालो में विभाजित किया।

• मिश्रबधु तीन भाई थे गणेश बिहारी मिश्र, श्याम बिहारी मिश्र एवं शुकदेव बिहारी मिश्रा।


7 "हिंदी साहित्य का इतिहास'(1929ई.)

 (रामचंद्र शुक्ल) 


यह ग्रंथ मूलतः नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित 'हिंदी शब्दसागर' की भूमिका के रुप मे लिखा गया था। इस भूमिका को 'हिंदी साहित्य का विकास' नाम दिया गया था।

• इसमें रचनाकारों के इतिवृत्त की बजाय उनके रचनात्मक वैशिष्ट्य पर अधिक बल दिया गया।

• यह हिंदी का सर्वाधिक प्रख्यात इतिहाम-प्रथ है।

• विधेयवादी पद्धति का प्रयोग करते हुए तत्कालीन युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में हिंदी साहित्य के इतिहास को विश्लेषित किया गया।

• अपभ्रंश साहित्य को हिंदी से अलगाते हुए पूर्वपीठिका के रूप में वर्णित किया गया।


सपूर्ण इतिहास का इतना तार्किक एवं सुव्यवस्थित काल विभाजन किया कि परवर्ती इतिहास-ग्रंथों में प्राय इसका ही प्रयोग किया जाता हैं 


8 हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास (1938 ई.)

डॉ. रामकुमार वर्मा 

छायावादी कवि रामकुमार वर्मा द्वारा रचित इस इतिहास ग्रंथ में उनकी काव्यात्मक भाषा ने पाठको को आकर्षित किया था। अपनी विस्तृत सामग्री, उसकी आकर्षक प्रस्तुति एव भाषा के कारण यह ग्रंथ प्रभाव छोड़ना में सफल रहा।

• इसमें सिर्फ आदिकाल व भक्तिकाल (693 ई. से 1693 ई.) तक की अवधि को हो स्थान मिला है आगे का भाग वे नहीं लिख पाए 


• 'निर्गुण ज्ञानश्रयी शाखा' को "संतकाव्य" तथा निर्गुण प्रेमाश्रय 'को "सूफीकाव्य"  नाम दिया। 

• इसमें अपभ्रंश साहित्य के बड़े हिस्से को भी शामिल कर 'संधिकाल" शीर्षक के अंतर्गत प्रस्तुत किया गया है वर्मा जी ने इसी से आदिकाल को सधिकाल एवं चारणकाल कहा था 


9 हिंदी साहित्य की भूमिका' (1940 ई.)

'हिंदी साहित्यः उद्भव और विकास' (1952 ई.)

'हिंदी साहित्य का आदिकाल' (1952 ई.)

हजारीप्रसाद द्विवेदी


• हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कोई स्वतंत्र इतिहास-ग्रंथ नहीं लिखा, किंतु उल्लिखित तीनों ग्रंथ साहित्येतिहास संबंधी ही हैं एवं इनमें एक निश्चित साहित्येतिहास-दृष्टि भी मिलती है।

• आचार्य द्विवेदी इतिहास को परंपरा के विकास के रूप में व्याख्यायित करते थे।

• इन्होंने विश्व भारती के गैर-हिंदी भाषी साहित्य-जिज्ञासुओं को हिंदी साहित्य से परिचित करवाने हेतु जो व्याख्यान दिये थे, उन्हें ही संशोधित परिवर्द्धित कर 'हिंदी साहित्य की भूमिका' नामक ग्रंथ तैयार किया गया था। 

• आदिकाल का स्वरूप-निर्धारण; भक्तिकाल के उदय की पृष्ठभूमि; पूर्ववर्ती सिद्धांतों से भक्तिकालीन संत काव्यधारा का संबंध-उद्घाटन; हिंदी सूफी काव्य का आधार संस्कृत, प्राकृत-अपभ्रंश की काव्य- परंपराओं को मानना आदि उनकी साहित्येतिहासकार के रूप में उपलब्धियाँ हैं


10 हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास (1965 ई.)

डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त 


• आचार्य शुक्ल द्वारा प्रतिपादित ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करने का एक सार्थक प्रयास इस ग्रंथ के माध्यम से किया गया है

• संपूर्ण इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया गया- प्रारंभिक काल, मध्यकाल और आधुनिक काल।

• इसमें 'साहित्येतिहास के विकासवादी सिद्धांतों की प्रतिष्ठा करते हुए, उसके आलोक में हिंदी साहित्य की नूतन व्याख्या प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है।


11 "हिंदी साहित्य का इतिहास'  (1973 ई.)

 सं. डॉ. नगेंद्र एवं डॉ. हरदयाल 


डॉ. नगेंद्र के संपादन में 26 विद्वानों के सहयोग से यह विशद ग्रंथ रचा गया था।

• इतने विद्वानों के कारण एक ऐतिहासिक दृष्टि संपूर्ण ग्रंथ में आद्योपांत नहीं हो पाई है कितु फिर भी प्रत्येक काल व उससे जुड़े रचनाकारों पर सरल भाषा में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक व व्यवस्थित सामग्री के कारण यह विद्यार्थियों में विशेष रूप से प्रचलित है।


12 'हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास'  (1986ई.)

रामस्वरूप चतुर्वेदी 


• साहित्येतिहास लेखन के लिये व्यास सम्मान सहित कई पुरस्कार प्राप्त करने वाला यह ग्रंथ अपनी लोकप्रियता एवं आकर्षण में अद्वितीय है।

• रामस्वरूप चतुर्वेदी मूलतः आचार्य शुक्ल की दृष्टि से प्रभावित हैं फिर भी उन्होंने शुक्ल जी के युगीन दृष्टिकोण और द्विवेदी जी के परंपरावादी दृष्टिकोण में परस्पर संबंध बनाते हुए लिखा है।

• शुक्ल जी की बहुत-सी स्थापनाओं को स्थापित करने के प्रयास से भी उनकी मौलिकता क्षरित नहीं होती। शुक्ल जी की परंपरा को गंभीरता से पुनर्परिभाषित किया है।

• भाषा और साहित्य के गहरे संबंधों की खोज उनकी प्रमुख विशेषता है। भाषिक प्रवृत्तियों को गहरी समीक्षा से साहित्यिक परंपराओं के संदर्भ व्याख्यायित किये हैं।








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