महादेवी वर्मा के निबंध 'श्रृंखला की कड़ियां' की भाषा शैली

"श्रृंखला की कड़ियां" निबंधो की भाषा शैली 










महादेवी वर्मा जी मूलतः एक कवयित्री तथा छायावाद के चार आधार स्तम्भों में से एक के रूप में प्रसिद्ध थीं। करुणा एवं भावुकता उनके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग हैं। साहित्य को इनकी देन मुख्यतया एक कवि के रूप में है, किन्तु इन्होंने प्रौढ़ गद्य-लेखन द्वारा हिन्दी भाषा को सजाने-सँवारने तथा अर्थदृगाम्भीर्य प्रदान करने में जो योगदान किया है, वह भी प्रशंसनीय है। इनकी रचनाएँ सर्वप्रथम 'चाँद' नामक पत्रिका में प्रकाशित हुईं। तत्पश्चात् इन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त हुई। "हृदय को मथ देनेवाली जितनी हृदय विदारक पीड़ाएँ कवयित्री द्वारा चित्रित की गयी हैं, वे अद्वितीय ही मानी जायेंगी। सूक्ष्म संवेदनशीलता, परिष्कृत सौन्दर्य रुचि, समृद्ध कल्पना-शक्ति और अभूतपूर्व चित्रात्मकता के माध्यम से प्रणयी मन की जो स्वर लहरियाँ गीतों में व्यक्त हुई हैं, आधुनिक क्या सम्पूर्ण हिन्दी काव्य में उनकी तुलना शायद ही किसी से की जा सके।" अपनी अन्तर्मुखी मनोवृत्ति एवं नारी-सुलभ गहरी भावुकता के कारण उनके द्वारा रचित काव्य में रहस्यवाद, वेदना एवं सूक्ष्म अनुभूतियों के कोमल तथा मर्मस्पर्शी भाव मुखरित हुए हैं। महादेवी का गद्य-साहित्य कम महिमामय नहीं है। उनके चिन्तन के क्षण, स्मरण की घड़ियाँ तथा अनुभूति और कल्पना के पल गद्य-साहित्य में भी साकार हुए हैं। उनकी आस्था, उनका तोष, उनकी उग्रता तथा संयम, दृष्टि की निर्मलता ने मिलकर उनके गद्य को हिन्दी का गौरव बना दिया। इस प्रकार पद्य हो या गद्य महादेवी जी हिंदी साहित्य में उच्चतम स्थान की अधिकारिणी हैं।

महादेवी वर्मा के निबंधों की भाषा

* संस्कृत निष्ठ

महादेवी संस्कृत के मेधावी लेखिका है । अतः उनकी भाषा में संस्कृत शब्दावली की भरमार है । भारतीय संस्कृति की व्याख्या करते समय आप की भाषा अत्यन्त गठित, संस्कृत निष्ठ एवं धारावाहिक है । जिसमें वे संस्कृत पर अपने अधिकार का पर्दाफाश करती हैं । उदाहरण के लिए "मधु मक्षिका जैसे कमल से लेकर भटकटैया तक और रसाल से लेकर आक तक सब मधुरं रस एकत्र करके उस से अपनी शक्ति से एक मधु बनाकर लौटती है, बहुत कुछ वैसा ही आदान-संप्रदान सुभद्रा जी का था । सभी कोमल-कठिन सह्य-असह्य अनुभवों का परिपाक दूसरों के लिए एक ही होता था । इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उन में विवेचन की तीक्ष्ण दृष्टि का अभाव था । महादेवी जी ने बहुत से तत्सम शब्दों का प्रयोग किया है जैसे पराकाष्ठा ,अतिवृत्ति , सौंदर्यबोध ,लक्ष्यभेद , ध्वंसयुग , निष्प्राण ,आदर्श आत्मनिष्ठ विकलांग  ,संस्कार , सवेदनशील , इत्यादि

* तद्भव और देशज शब्द

महादेवी ने तत्सम शब्दों के साथ साथ तदभव शब्दों का प्रसंगानुकूल प्रयोग किया है । उनके संस्मरणों और रेखाचित्रों में इसका प्रयोग अधिक देखा जा सकता है । "स्मृति की रेखाएँ में देशज एवं तद्भव शब्दों का प्रयोग प्रभूत मात्रा में हुआ है । महादेवो कहती हैं कि जब एक दिन वह उत्तर पुस्तिकाओं और चित्रों को लेकर व्यस्त थी, तब भक्तिन सबसे कही घूमी - "ऊ बिधरिअउ तो रातदिन काम माँ झुकी रहती हैं, अउर तुम पये घुमती फिरता हो ! चलो तनिक तिनुक हाथ बटाय लेऊ ।' किसी के लम्बे बाल और अस्तव्यस्त वेशभूषा देखकर भक्तिन कह उठती है "का ओटू कवित्त लिख जनत है" "तब ऊ कुरछौ करि हैं धरि हैं ना बस गली गली गाउत बजाउत फिरि 2 हैं। भक्तिन की बातों में स्वाभाविकता लाने के लिए तदभव शब्दों का प्रयोग बहुत सहायक सिद्ध हुआ है । 


* विदेशी शब्द

महादेवी की गद्य भाषा में विदेशी शब्दों का प्रयोग हुआ है । अंग्रेज़ी, अरबी और फारसी शब्दों का प्रयोग कहीं कहीं हुआ है। स्टूल, प्रेम, बेंगला, कार, कम्पाउण्ड, फोटो, ड्रामा, आपरेशन, क्लास, फिलासफो, क्ले मॉडल, इन्लार्जमेंट, फाऊन्टेन पेन, डिपार्टमेंट, अपील, अस्पताल आदि अंग्रेज़ी शब्दों का और उर्दू-फारसी शब्दों जैसे सफेद, साफा, हौज़, गर्दन, कलाबज़ी, चीज़, बालिश्त, खबर, दरवाज़ा, कुर्सी, नाप-जोख, बाज़ार, तकलीफ़, फिजलखर्व, नादान, ज़मीन-जायदाद, जंजीर, गुंजाइश, दावत, सूम, मर्सिया आदि अरबी-फारसी शब्दों का प्रयोग अभिव्यक्ति को अधिक व्यावहारिक बनाने के लिए किया गया है ।

* मुहावरे, कहावत और लोकोक्ति

महादेवी जी की भाषा को लोकोक्तियों, कहावतों एवं मुहावरों ने भी पर्याप्त अलंकृत किया है । इनके प्रयोग से आपको भाषा मार्मिक एवं मनोरंजक हो उठी है । 
जैसे "आँखों के अध नाम नैन सुख", "चोरों की बारात में", अपनी-अपनी होशियारी", "एक पंथ दो काज", "नौ दिन चले अढ़ाई कोस ", "रोज़ कुआ खोदना रोज़ पानी पोना" ,"अपनी करनी अपनी भरनी", "भानमती का कुनबा जोडना' "दूध का जला मट्ठा भी


महादेवी वर्मा के निबंधो की शैली


महादेवी जी की गद्य-शैली इनकी काव्य-शैली से बिल्कुल भिन्न है। ये यथार्थवादी गद्य-लेखिका थीं। इनकी गद्य शैली में मार्मिकता, बौद्धिकता, भावुकता, काव्यात्मक सौष्ठव तथा व्यंग्यात्मकता विद्यमान है। इनकी रचनाओं में शैली के प्रायः निम्नलिखित रूप देखने को मिलते हैं-

1 . चित्रोपम वर्णनात्मक शैली

चित्रोपम वर्णन करने में सिद्धहस्त हैं। वस्तु, व्यक्ति अथवा घटना का वर्णन करते समय इनकी लेखनी तूलिका बन जाती है, इससे सजीव शब्दचित्र बनते चले जाते हैं। इस शैली की भाषा सरल है, वाक्य अपेक्षाकृत छोटे हैं, वर्णन में प्रवाह है तथा भाषा में चित्रात्मकता है। इनके निबन्धों और रेखाचित्रों में इसी शैली का प्रयोग हुआ है। महादेवी जी की मुख्य शैली भी यही है


2. विवेचनात्मक शैली गम्भीर और विचार

- प्रधान विषयों का विवेचन करते समय महादेवी जी ने इसी शैली का प्रयोग किया है। इनके विचारात्मक निबन्धों में यही शैली मिलती है। बौद्धिकता के साथ ही स्पष्ट विवेचन, तार्किकता और सूक्ष्म विश्लेषण इस शैली की मुख्य विशेषताएँ हैं। इस शैली की भाषा गम्भीर और संस्कृतनिष्ठ है। कवयित्री भी थीं। इनके इस व्यक्तित्व की छाप इनके गद्य में यत्र-तत्र - सर्वत्र दिखाई देती

3. भावात्मक शैली -

 महादेवी भावुक हृदया नारी होने के साथ ही भावमयी है। हृदय का आवेग जब रुक नहीं पाता तब उनकी शैली भावात्मक हो जाती है। इस शैली में महादेवी जी की भाषा कोमलकान्त पदावली से युक्त और आलंकारिक हो उठती है। जैसे- 'पृथ्वी के उच्छवास के समान उठते हुए धुंधलेपन में वे कच्चे घर आकंठ मग्न हो गए थे- केवल फूस के मटमैले और खपरैल के कत्थई और काले छप्पर, वर्षा में बढ़ी गंगा के मिट्टी- जैसे जल में पुरानी नावों के समान जान पड़ते थे।'

4. व्यंग्यात्मक शैली

 सामाजिक वैषम्य और नारी जीवन की विडम्बनाओं को देखकर महादेवी इतनी दुखी और क्षुब्ध हो उठती थीं कि उनकी कोमल लेखनी से तीक्ष्ण व्यंग्य निकलने लगते थे। इनके रेखाचित्रों में तथा 'श्रृंखला की कड़ियाँ' नामक निबन्ध संग्रह के निबन्धों में स्थान-स्थान पर इस व्यंग्यात्मक शैली के दर्शन होते हैं। महादेवी की व्यंग्यात्मक शैली बहुत ही मार्मिक प्रभाव छोड़ती है। यथा- 'जिनकी भूख झूठी पत्तल से बुझ सकती है, उनके लिए परोसा लगाने वाले पागल होते हैं।'

5. शैली के इन रूपों के साथ ही महादेवी की रचनाओं में सूक्ति शैली, उद्धरण शैली, आत्मकथात्मक शैली आदि के भी प्रयोग मिल जाते हैं।

निष्कर्षः

महादेवी जी का गद्य खड़ी बोली हिंदी में  हैं, महादेवी जी की खड़ी बोली संस्कृ त-मिश्रित है। वह मधुर कोमल और प्रवाह पूर्ण हैं। उसमें कहीं भी नीरसता और कर्कशता नहीं। वैसे महादेवी जी की भाषा सरल है, किंतु सूक्ष्म भावनाओं के चित्रण में वह संकेतात्मक होने के कारण कहीं-कहीं अस्पष्ट भी हो गई हैं। शब्द चयन अत्यंत सुंदर है, किंतु भाषा में कोमलता और मधुरता लाने के लिए कहीं-कहीं शब्दों का अंग-भंग अवश्य मिलता है। जैसे- आधार का अधार, अभिलाषाओं का अभिलाषें आदि । महादेवी जी की शैली में निरंतर विकास होता रहा है। 




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