हिंदी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदिकाल नोट्स

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत "हिंदी साहित्य के इतिहास" से  





      
आदिकाल

• आचार्य शुक्ल ने अपने ग्रंथ के 'वक्तव्य ' में आदिकाल के नामकरण पर विचार किया है-

• आदिकाल में (भाषा के आधार पर मुख्यतः) दो प्रकार की रचनाएँ मिलती है: अपभ्रंश की और देशभाषा (बोलचाल)की। इसी आधार पर शुक्ल जी ने आदिकाल का विभाजन किया है: अपभ्रंश काव्य और देशभाषा काव्य। 

इनके अंतर्गत केवल बारह ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए इस प्रकार वर्गीकृत किया है

 अपभ्रंश काव्यः विजयपालरासो, हम्मीररासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका

देशभाषा काव्यः खुमानरासो, बीसलदेवरासो, पृथ्वीराजरासो, जयचंद्रप्रकाश, जयमयंक जस चंद्रिका, परमालरासो (आल्हा का मूल रूप), खुसरो की पहेलियाँ आदि और विद्यापति पदावली

• उपर्युक्त बारह पुस्तकों के आधार पर ही आदिकाल का नामकरण 'वीरगाथाकाल' करते हुए लिखा, "इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं। अतः आदिकाल का नाम 'वीरगाथाकाल' ही रखा जा सकता है।"

• शुक्ल जी ने आदिकाल को चार प्रकरणों (अध्यायों) के अंतर्गत विवेचित किया है-

• प्रकरण । (सामान्य परिचय)

• प्रकरण 2 (अपभ्रंश काव्य)

• प्रकरण 3 (देशभाषा काव्य)

• प्रकरण 4 (फुटकल रचनाएँ)


     प्रकरण 1 (सामान्य परिचय)

• प्रकरण । में आदिकाल के आरंभ, अवधि और उसकी दो मूल विशेषताओं का वर्णन किया है।

• प्राकृत भाषा की तीन अवस्थाएँ मानी जाती हैं। प्रथम अवस्था को पालि, दूसरी को प्राकृत और अंतिम अवस्था को अपभ्रंश कहा जाता है।

• आचार्य शुक्ल के अनुसार, "प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी साहित्य का आविर्भाव माना जा सकता है। उस समय जैसे 'गाथा' कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही 'दोहा' या 'दूहा' कहने से अपभ्रंश या प्रचलित काव्यभाषा का पद्म समझा जाता था।"

• आचार्य शुक्ल ने अपभ्रंश के लिये 'प्राकृताभास हिंदी', 'प्राकृत की अतिम अवस्था' और 'पुरानी हिंदी' जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।

• "अपभ्रंश या प्राकृताभास हिंदी के पद्यों का सबसे पुराना पता तांत्रिक और योगमार्गी बौद्धों (सिद्धों) की सांप्रदायिक रचनाओं के भीतर विक्रम की सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में लगता है। मुंज भोज के समय (संवत् 1050) के लगभग तो ऐसी अपभ्रश पुरानी हिंदी का पूरा प्रचार शुद्ध साहित्य या काव्य रचनाओं में के पाया जाता है। अत: हिंदी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050 में लेकर संवत् 1375 तक अर्थात् महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।"


 • हालाँकि प्रथम सिद्ध सरहपा का समय राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सामान्यतः 769 ई. स्वीकार किया जाता है, किंतु शुक्ल जी ने उनका समय 633 ई. (वि.सं. 690) माना है। अतः इसी आधार पर उन्होंने आठवी  शताब्दी  की बजाय सातवीं शताब्दी से सिद्धों की रचनाओं में अपभ्रंश के पद्यों की प्राप्ति को माना है।


• "जनश्रुति इस काल का आरंभ और पीछे ले जाती है और संवत 770 में भोज पूर्वपुरुष राजा मान के सभासद पुष्य नामक किसी बंदीजन का दोहों में एक अलंकार ग्रंथ लिखना बताती है (दे शिवसिंह सरोज), पर इसका कहीं कोई प्रमाण उपलब्ध नही है।"

• "प्रायः लोक में प्रचलित बोलचाल की भाषा और साहित्य की भाष में अंतर रहा है। अपभ्रंश भी उस समय की ठीक बोलचाल को भाषा नहीं थी जिस समय की रचनाएँ मिलती हैं, बल्कि उस समय के कवियों की भाषा थी। शुक्ल जी ने अपभ्रंश के संबंध में लिख है. कवियों ने काव्य परंपरा के अनुसार साहित्यिक प्राकृत के पुराने शब्द तो लिये ही हैं (जैसे पीछे की हिंदी में तत्सम संस्कृत शब्द लिये जाने लगे), विभक्तियाँ, कारकचिह्न और क्रियाओं के रूप आदि भी बहुत कुछ अपने समय से कई सौ वर्ष पुराने रखे हैं। "बोलचाल की भाषा घिस घिसकर बिल्कुल जिस रूप में आ गई थी सारा वही रूप न लेकर कवि और चारण आदि भाषा का बहुत कुछ वह रूप व्यवहार में लाते थे जो उनसे सौ वर्ष पहले से कवि परंपरा रखती चली आती थी।"

• "अपभ्रंश के जो नमूने हमें पद्मों में मिलते हैं वे उस काव्य भाष के हैं जो अपने पुरानेपन के कारण बोलने की भाषा से कुछ अलग बहुत दिनों तक आदिकाल के अंत क्या उससे पीछे तक पोथियों में चलती रही 

• उस समय रचनाओं की भाषा में बहुत विविधता थी। एक ही समय (विक्रम की 14वीं शती के मध्य) में शारंगधर अपभ्रंश और खुसरे देशभाषा (खड़ी बोली हिंदी) का प्रयोग कर रहे थे विद्यापति दोनों प्रकार की भाषाओं (अपभ्रंश के रूप अवहट्ठ और देशभाषा मैथिलो) का प्रयोग करते हैं। इनके समांतर ही कबीर की रचनाओं का आरंभिक दौर भी शुरू हो जाता है।

• भाषिक-वैविध्य की स्थिति में अपभ्रंश की परंपरा विक्रम की 15वीं शती के मध्य (विद्यापति के समय तक चलती रही।

• उस समय की बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने 'देशी भाषा' कहा। उन्हीं की प्रेरणा से शुक्ल जो ने 'देशभाषा' शब्द का प्रयोग किया।

• उस समय की बोलचाल की भाषा (देशभाषा) के दो रूप आदिकालीन रचनाओं में मिलते हैं- प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त और पूरी तरह मुक्त। अमीर खुसरो और विद्यापति की भाषा प्राकृत की रूढ़ियों से मुक्त है। देशभाषा की अन्य रचनाओं पर प्राकृत की रूढ़ियों का थोड़ा बहुत प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

• शुक्ल जी द्वारा निर्दिष्ट आदिकाल की दो मूल विशेषताएँ निम्नलिखित हैं 

• 'अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति' ("आदिकाल की दीर्घ परंपरा के बीच डेढ़ सौ वर्षों के भीतर रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है- धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती हैं।")

• "इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध है। असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात् प्राकृताभास हिंदी है।"



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