हिंदी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल 'अपभ्रंश काव्य' नोट्स

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत "हिंदी साहित्य के इतिहास" से  



                     आदिकाल                   

           प्रकरण 2 (अपभ्रंश काव्य)


• "जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव समझना चाहिये।"

• "पुरानी प्रचलित काव्यभाषा (अपभ्रंश) में नीति, श्रृंगार, वीर आदि की कविताएँ तो चली ही आती थीं, जैन और बौद्ध धर्माचार्य अपने मतों की रक्षा और प्रचार के लिये भी इसमें उपदेश आदि की रचना करते थे।" 

• "प्राकृत से बिगड़कर जो रूप बोलचाल की भाषा ने ग्रहण किया वह भी आगे चलकर कुछ पुराना पड़ गया और काव्य रचना के लिये रूढ़ हो गया। अपभ्रंश नाम उसी समय से चला। जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।" 

• अपभ्रंश के नाम का इतिहास इस प्रकार है-

• भरतमुनि ने अपभ्रंश नाम न देकर 'देशभाषा' ही कहा है

• वररुचि के 'प्राकृतप्रकाश' में उल्लेख नहीं है।

• "अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है

 • भामह ने तीनों भाषाओं का उल्लेख किया।

• वाण ने 'हर्षचरित' में संस्कृत कवियों के साथ भाषा-कवियों का भी उल्लेख किया।

जैन. सिद्ध एवं नाथों का वर्णन इसी प्रकरण में किया गया है। किंतु शुक्ल जी की स्पष्ट मान्यता है-

• "अपभ्रंश की पुस्तकों में कई त्तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आती और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था।"

• "उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तात्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र है, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ।"

• सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। "कबीर आदि संतो को नाथपथियों से जिस प्रकार 'साखी' और 'बानी' शब्द मिले उसी प्रकार 'साखी' और 'बानी' के लिये बहुत कुछ सामग्री और 'सधुक्कड़ी' भाषा भी।"

• जैन, सिद्ध व नाथों के अलावा अपभ्रंश के सामान्य साहित्य की सामग्री का उल्लेख उनके संग्रहकर्ताओं और रचयिताओं के इस क्रम से किया गया है- हेमचंद्र, सोमप्रभ सूरि, जैनाचार्य मेरुतुंग, विद्याधर, शारंगधर ('हम्मीररासो') और विद्यापति को 'कीर्तिलता' एवं 'कीर्तिपताका।

• जैन ग्रंथकारों में देवसेन (ग्रंथ 'श्रावकाचार', 'दब्ब-सहाव पयास/ द्रव्य-स्वभाव प्रकाश) और पुष्यदत (ग्रंथ- 'आदिपुराण', 'उत्तरपुराण') का ही उल्लेख शुक्ल जी ने किया है। इनके अतिरिक्त पीछे की परंपरा के उदाहरणस्वरूप 'श्रुतिपचमी कथा', 'योगसार', 'जसहरचरिउ' और 'णयकुमारचरिउ' का नाम भर दिया है।

• "चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।... चौपाई दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में, तुलसी के 'रामचरितमानस' में तथा 'छत्रप्रकाश', 'व्रजविलास', सबलसिंह चौहान के 'महाभारत' इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।"


सिद्ध

• बौद्ध धर्म ने धीरे-धीरे तांत्रिक रूप धारण कर लिया था। तब उसमें पाँच ध्यानी बुद्धा और उनकी शक्तियों के अतिरिक्त अनेक बोधिसत्वों की भावना की गई जो सृष्टि का परिचालन करते हैं। आगे बौद्ध धर्म से ही वज्रयान शाखा निकलती है।

• बौद्ध धर्म से निकली वज्रयान शाखा के तांत्रिक योगियों को सिद्ध कहा गया। सिद्धों की संख्या 84 मानी गई है।

• राजेशखर ने 'कर्पूरमंजरी' में भैरवानंद के नाम से एक ऐसे ही सिद्ध योगी का समावेश किया है।

• बिहार के नालंदा और विक्रमशिला नामक प्रसिद्ध विद्यापीठ इनके अड्डे थे। बख्तियार खिलजी ने इन दोनों स्थानों को जब उजाड़ा तब से ये तितर-बितर हो गये। बहुत-से तिब्बत आदि अन्य देशों को चले गये

• वज्रयान बौद्ध धर्म का विकृत रूप था। इसमें सिद्धि प्राप्ति के लिये मद्य तथा स्त्री विशेषत; डोमिनी, रजकी आदि का (जिसे शक्ति योगिनी या महामुद्दा कहते थे ) योग या सेवन आवश्यक था। 

• इसी से सिद्धों ने 'महासुखवाद' का प्रवर्तन किया। 'महासुह' (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये 'युगनद्ध' (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) को भावना की गई।

• "प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा को प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए शून्य, विज्ञान और महासुख।... निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।" 

 • प्रथम सिद्ध सरहपा सहज जीवन पर बहुत बल देते थे। इसी से वज्रयान शाखा को सहजयान भी कहा जाता है।

• सिद्ध सिद्धियों और विभूतियों के लिये प्रसिद्ध थे। लोग इन्हें अलौकिक शक्ति संपन्न समझते थे।

• "जनता पर सिद्धों का प्रभाव विक्रम की दसवीं शताब्दी से ही पाया जाता है, जो मुसलमानों के आने पर पठानों के समय तक कुछ बना रहा।" 

• सिद्धों ने 'ऋजु' (सीधा, दक्षिण मार्ग) को छोड़ कर 'बक'

   (टेढ़ा वाम मार्ग) अपनाने का उपदेश दिया।

• "कैसा ही शुद्ध और सात्त्विक धर्म हो, 'गुह्य' और 'रहस्य' के प्रवेश से वह किस प्रकार विकृत और पाखंडपूर्ण हो जाता है, वज्रयान इसका प्रमाण है।"

• 'अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रश मिश्रित देशभाषा में भी बराबर सुनाते रहे।' (इसे शुक्ल जी ने 'देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी भी कहा है

• सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानो टकसाली हिंदी (देशभाषा मिश्रित अपभ्रंश) है, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की 'साखी' (उपदेशधर्मी दोहों) की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा 'सधुक्कड़ी' है पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूर्वी बोली भी है

•उस समय की सर्वमान्य व्यापक काव्यभाषा (नागर अपभ्रश) का ढाँचा शौरसेनी प्रसूत अपभ्रंश अर्थात् ब्रज और खड़ी बोली (पश्चिमी हिंदी) का था।

• 'सधुक्कड़ी' इससे अलग थी। उसका ढाँचा कुछ खड़ी बोली लिये राजस्थानी था।

• सिद्धों ने 'संधा' भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत: साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।

नाथ

• "गोरखनाथ ने पतंजलि के उच्च लक्ष्य, ईश्वर प्राप्ति को लेकर      हठयोग का प्रवर्तन किया।"

• गोरखनाथ का नाथपंथ बद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है नाथों में वज्रयानी सिद्धी के विरुद्ध मद्यमांस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया। 

• अलबता शिव शक्ति की भावना के कारण कुछ श्रृंगारमयी वाणी भी नाथपंथ के किसी-न-किसी ग्रंथ (जैसे, शक्ति संगम के में मिलती है, लेकिन फिर भी इनका मार्ग सिद्धा से कुछ समानता रखते हुए भी अलग था। इसी से नाथो और सिद्धों में यह सामान्यताएं मिलती है

• दोनों 'नाद' और 'बिंदु' के योग से जगत् की उत्पत्ति मानते। 

• बाह्य पूजा-विधान, तीर्थाटन आदि को व्यर्थ मानते हुए अत: साधना पर बल दिया- 

* 'घट में ही बुद्ध है।'

* जोइ-जोइ पिण्डे सोड़ ब्रह्मण्डे।' 

• अपने को रहस्यदर्शी (मूल ज्ञान ज्ञाता) प्रदर्शित करने के लिये वे शास्त्र पडितों और विद्वानों को फटकारना जरूरी समझते थे।

 • सद्‌गुरु का माहात्म्य दोनों में बहुत अधिक था।

• दोनों ने जाति-पाति का विरोध किया। शुक्ल जो ने लिखा, "84 सिद्धों में बहुत से मछुए, चमार, धोबी डोम, कहार, लकड़हारे दरजी तथा बहुत से शुद्र कहे जाने वतं लोग थे। अतः जाति-पाति के खंडन तो वे आप ही थे। न संप्रदाय भी जब फैला, तब उसमें भी जनता की नीची और अशिक्षि श्रेणियों के बहुत से लोग आए जो शास्त्र संपन्न न थे।"

• "सिद्धों ने घर के भीतर चक्र, नाड़ियाँ, शून्य देश आदि मानका साधना करने को बात फैलाई और नाद, बिंदु, सुरति निरति ऐसे शब्दों को उद्धरणी करना सिखाया। यही परंपरा अपने ढंग पर नाथपथियों ने भी जारी रखी।"

• योग संबंधी अंतमुखी साधना के कारण दोनों ने संधा भाषा-शैल का प्रयोग किया। (ध्यान रहे कि नाथों की भाषा सिद्धों से भिन्न थी, जिसका आगे वर्णन किया जाएगा।)

• सिद्धो का प्रभाव भारत के पूरबी भाग (बिहार से लेकर असम ओडिशा व बंगाल तक) में था। नाथों ने देश के पश्चिम भागा- राजपूताने और पंजाब को अपना क्षेत्र बनाया।

• पंजाब में नमक के पहाड़ों के बीच बालनाथ योगी का स्थान बहुत दिनों तक प्रसिद्ध रहा। जायसी की प‌द्मावत में 'बालनाथ का टीला" आया है

• नाथों को संख्या नौ मानी जाती है। ये कान की लौ में बड़े-बड़े छेद करके स्फटिक के भारी-भारी कुंडल पहनते हैं, जिससे ये "कानफटे" कहलाते हैं।

• "जिस प्रकार सिद्धों की संख्या चौरासी प्रसिद्ध है, उसी प्रकार नाथो की संख्या नौ। अब भी लोग 'नवनाथ' और 'चौरासी सिद्ध' कहते सुने जाते हैं 

• महाराष्ट्र के संत ज्ञानदेव ने खुद को गोरखनाथ की शिष्य परंपरा में कहां है

• शुक्ल जी ने गोरखनाथ का गुरु मत्स्येंद्रनाथ और मत्स्येंद्रनाथ का गुरु जालंधरनाथ को माना है।

• "सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर  शहर उन्ही का स्मारक जान पड़ता है।"

• गोरखनाथ ने हिंदू-मुस्लिम के विद्वेषभाव को दूर करके साधना का एक सामान्य मार्ग निकालने की संभावना समझी थी। वे इसका संस्कार अपनी शिव परंपरा में भी छोड़ गए थे। उनकी हठयोग साधना ईश्वरवाद को लेकर चली थी तथा उसमें मुस्लिम धर्म में वर्जित मूर्तिपूजा और बहुदेवोपासना की आवश्यकता न थी, इसलिये मुसलमानों के लिये भी आकर्षण था।

• "इतिहास से इस बात का पता लगता है कि महमूद गजनवी के भी कुछ पहले सिंध और मुलतान में भी कुछ मुसलमान बस गये थे जिनमें कुछ सूफी भी थे। बहुत से सूफियों ने भारतीय योगियों से प्राणायाम आदि की क्रियाएँ भी सीखीं, इसका उल्लेख मिलता है। अतः गोरखनाथ चाहे विक्रम की दसवीं शताब्दी में हुए हों, चाहे तेरहवीं में उनका मुसलमानों से परिचित होना अच्छी तरह माना जा सकता है, क्योंकि जैसा कहा जा चुका है, उन्होंने अपने पंथ का प्रचार पंजाब और राजपूताने की ओर किया।"

• पश्चिमी भाग में सक्रियता के कारण नाथों ने वहीं राजपूताना व पंजाब की भाषा को अपनाया। साथ ही मुस्लिमों को भी अपनी बानी सुनाने के लिये खड़ी बोली का समावेश किया (क्योंकि उनकी बोली अधिकतर दिल्ली के आसपास की खड़ी बोली थी। इस प्रकार नाथों ने परंपरा साहित्य को काव्यभाषा (जिसका ढाँचा नागर अपभ्रंश या ब्रज का था) से अलग 'सधुक्कड़ी' भाषा का प्रयोग किया।

• ' सधुक्कड़ी' का ढाँचा खड़ी बोली लिये राजस्थानी का था।

• नाथों की देशभाषा की इन पुस्तकों में पूजा, तीर्थाटन आदि के साथ,हज, नमाज आदि का भी उल्लेख मिलता है, जैसे 'काफिर बोध' में

अन्य

• शुक्ल जी के अनुसार, अपभ्रंश की रचनाओं की परंपरा लगभग 1340 ई. में शारंगधर (ग्रंथ- 'शारंगधर पद्धति' और 'हम्मीररासो' पर खत्म हो जाती है। हालांकि इसके 50-60 वर्ष पीछे विद्यापति के दो ग्रंथ मिलते हैं, पर उस समय तक अपभ्रंश का स्थान देशभाषा ले चुकी थी।

• विद्यापत्ति के इन प्रशस्तिमूलक दो छोटे छोटे ग्रंथों का प्रथम परिचय जॉर्ज ग्रियर्सन को उनके पदों का संग्रह करते हुए हुआ। किंतु उन्हें ये मिले नहीं।

• महामहोपाध्याय पडित हरप्रसाद शास्त्री को नेपाल के         राजकीय पुस्तकालय में कीर्तिलता प्राप्त हुई।

 • 'कीर्तिपताका' की सूचना-मात्र है।

'कीर्तिलता' की रचना बोच-बीच में देशभाषा के पद्य रखते हुए. अपभ्रंश भाषा के दोहा, चौपाई, छप्पय छंद गाथा आदि छंदों में को गई है।

• विद्यापति के अपभ्रंश की दो विशेषताएँ हैं-

• यह पूरबी अपभ्रंश है।

• प्रायः देशभाषा कुछ अधिक लिये है और उसमें तत्सम, संस्कृत शब्दों का वैसा बहिष्कार नहीं है। वह प्राकृत की रूढ़ियों से उतनी अधिक बंधी नहीं है।

• "ज्यों-ज्यों काव्यभाषा (अपभ्रंश से) देशभाषा की ओर अधिक प्रवृत्त होती गई त्यों ल्यों तत्सम संस्कृत रखने में संकोच भी घटता गया। शारंगधर के पद्यों और 'कीर्तिलता' में इसका प्रमाण मिलता है।"

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