हिंदी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल वीरगाथाकाल नोट्स

 आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत "हिंदी साहित्य के इतिहास" से




           आदिकाल 

प्रकरण 3 (देशभाषा काव्य/वीरगाथाकाल)


• इस प्रकरण में देशभाषा, उसमें रचित 'रासो' काव्य और सात ग्रंथों का विवेचन किया गया है। ये सात ग्रंथ इस प्रकार हैं- खुमानरासो (दलपपत विजय), बीसलदेवरासो (नरपति नाल्ह), पृथ्वीराजरासो (चंदबरदाई), जयचंदप्रकाश (भट्टकेदार), जयमयंक जस चंद्रिका (मधुकर कवि), परमालरासो (जगनिक) और रणमल्ल छंद (श्रीधर)।

• शुक्ल जी द्वारा अपने ग्रंथ के आरंभ में दी गई बारह पुस्तकों की सूची में से आठ को 'देशभाषा काव्य' में रखा गया था, जिनमें से छह का वर्णन इस प्रकरण में किया गया है। शेष दो (विद्यापति की पदावली और खुसरो की पहेलियाँ आदि) को 'प्रकरण 4 (फुटकल रचनाएँ)' में स्थान दिया गया है। इसका कारण उनमें विषयवस्तु एवं भाषा संबंधी भिन्नता है।


• प्रशस्ति-काव्य को हो 'रासो' कहा गया। इसे शुक्ल जी ने आदिकाल के प्रकरण 1 में ही स्पष्ट करते हुए लिखा था, "राजश्रित कवि और चारण जिस प्रकार नीति, श्रृंगार आदि के फुटकल दोहे राजसभाओं में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रमपूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन भी किया करते थे। यही प्रबंध परंपरा 'रासो' के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने, 'वीरगाथाकाल' कहा है।"

• "गुप्त साम्राज्य के ध्वस्त होने पर हर्षवर्धन (मृत्यु संवत् 704) के उपरांत भारत का पश्चिमी भाग ही भारतीय सभ्यता और बलवैभव का केंद्र हो रहा था। कन्नौज, अजमेर, अन्हिलवाड़ा आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ उधर ही प्रतिष्ठित थी। उधर की भाषा ही शिष्ट मानी जाती थी और कवि-चारण उसी भाषा में रचना करते थे। प्रारंभिक काल का जो साहित्य (रासो) हमें उपलब्ध है उसका आविर्भाव उसी भू-भाग में हुआ।"

• हर्षवर्धन के बाद केंद्रीय सत्ता न रहने से छोटे-छोटे राज्य खुद को स्वतंत्र घोषित कर चुके थे। लड़ाई आम हो गई थी। कभी साम्राज्यवादी इच्छा से तो कभी-कभी शौर्य प्रदर्शन मात्र से ही लड़ाई मोल ली जाती थी। बीच-बीच में मुसलमानों (विदेशी आक्रांताओं) के हमले भी होते रहते थे। इस प्रकार जिस समय से हमारे हिंदी साहित्य का अभ्युदय होता है, वह लड़ाई भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था। ऐसे में केवल वीरगाथाओं की उन्नति ही संभव थी।

 •"राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्राथों की वह धूम नहीं रह गई थी। पंडितो  के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण (अतिशयोक्तिपूर्ण) आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वहीं सम्मान पाता था।"

• प्रशस्तिमूलक काव्य (वीरगाथाओं) की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं- 

• दो रूपों में मिलता है- प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में और    बीरगीतों (बैलेड्स) के रूप में।

• वीररस के पद्य प्रचलित छंद दोहे की बजाय प्रायः छप्पय में लिखे जाते थे।

• यूरोप की वीरगाथाओं की तरह ही मुख्य विषय 'युद्ध और प्रेम' रहा। इस प्रकार इन काव्यों में श्रृंगार का भी मिश्रण रहता था, पर गौण रूप में; प्रधान वीर रस ही होता था।

• "प्रधान रस वीर ही रहता था। शृंगार केवल सहायक के रूप में रहता था। जहाँ राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था, वहाँ भी उन कारणों का उल्लेख न कर कोई रूपवती स्त्री ही कारण कल्पित करके रचना की जाती थी। जैसे शहाबुद्दीन के यहाँ से एक रूपवती स्त्री का पृथ्वीराज के यहाँ आना ही लड़ाई को जड़ लिखी गयी है। हम्मीर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का भी ऐसा ही कारण कल्पित किया गया है।"

• आश्रित कवि अपने राजाओं के शौर्य आदि गुणों का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करते थे। इससे इन काव्यों में प्रधानुकूल कल्पित घटनाओं की बहुत अधिक योजना रहती थी।

• रासो काव्य के प्रायः सभी ग्रंथों की सामग्री की प्रमाणिकता संदिग्ध है। कुछ ग्रंथ तो अप्राप्य ही हैं और जो प्राप्त उनकी सामग्री का बहुत-सा हिस्सा बाद का जोड़ा हुआ पड़ता है। इस फेरफार का एक कारण शुक्ल जी ने रेखांकित किया है, "भट्ट, चारण जीविका के विचार से उन्हें उत्तराधिकारियों के पास भी छोड़ जाते थे। उत्तरोत्तर भट्ट और चरणों की परंपरा में चलते रहने से उनमें हेरफेर भी बहुत कुछ होता रहा।"

बीसलदेवरासो (राजमती और बीसलदेव) 

• बीसलदेवरासो के निर्माणकाल को इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है 

    बारह से बहात्तरा मझारि। जैठबदी नवमी बुधवारि।       नाल्हा रसायण आरंभई। शारदा तूठी ब्रह्मकुमारि

'बारह से बहोत्तरा' का स्पष्ट अर्थ वि. सं. 1212 है।

• बीसलदेवयसो में चार खंड है। यह काव्य लगभग 2000 चरणों मे समाप्त हुआ है। इसकी कथा का सार यों है-

खंड 1: मालवा के भोज परमार की पुत्री राजमती से साँभर के बीसलदेव का विवाह होना।

खंड 2: बीसलदेव का राजमती से रूठकर उड़ीसा की और  प्रस्थान करना तथा वहाँ एक वर्ष रहना।

खंड 3: राजमती का विरह वर्णन तथा बीसलदेव का उड़ीसा   से लौटना।

खंड 4: भोज का अपनी पुत्री को अपने घर लिवा ले जाना तथा बीसलदेव का वहाँ जाकर राजमती को फिर चित्तौड़ लाना।

 • दिये हुए संवत् के विचार से कवि अपने नायक का समसामयिक अत पड़ता है। पर वर्णित घटनाएँ, विचार करने पर, बीसलदेव के बहुत पीछे को लिखी जान पड़ती है, जबकि उनके संबंध में कल्पना की गुंजाइश हुई होगी।

• यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है। इसमें दो ही घटनाएँ है- बीसलदेव का विवाह और उनका उड़ीसा जाना।

• इनमें से पहली बात तो कल्पनाप्रसूत प्रतीत होती है। बीसलदेव से एक सौ वर्ष पहले ही धार के प्रसिद्ध परमार राजा भोज का देहांत हो चुका था। अतः उनकी कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह किसी पोछे के कवि की कल्पना ही प्रतीत होती है। 

• उस समय मालवा में भोज नाम का कोई राजा नहीं था। बीसलदेव की एक परमार वंश की रानी थी, यह बात परंपरा से अवश्य प्रसिद्ध चली आती थी,

• इसी बात को लेकर पुस्तक में भोज का नाम रखा हुआ जान पड़ता है। अथवा यह हो सकता है कि धार के परमारों की उपाधि ही भोज रही हो और उसी आधार पर इन्हीं में से किसी की कन्या के साथ बीसलदेव का विवाह हुआ हो।

• परमार कन्या के संबंध में कई स्थानों पर जो वाक्य आये हैं, उन पर ध्यान देने से यह सिद्धांत पुष्ट होता है कि राजा भोज का नाम कहीं पीछे से न मिलाया गया हो; जैसे-'जननी गोरी तु जेसलमेर', 'गोरड़ी जेसलमेर की'।

• आबू के परमार भी राजपूताने में फैले हुए थे। अतः राजमती का उनमें से किसी सरदार की कन्या होना भी संभव है पर भोज के अतिरिक्त और भी नाम इसी प्रकार जोड़े हुए मिलते हैं; जैसे-'माघ अचारज, कवि कालीदास'।

• "भाषा साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है। इस ग्रंथ से एक बात का आभास अवश्य मिलता है कि शिष्ट काव्य भाषा में ब्रज और खड़ी बोली के प्राचीन रूप का ही राजस्थान में भी व्यवहार होता था। साहित्य की सामान्य भाषा 'हिंदी' ही थी जो पिंगल भाषा कहलाती थी। बीसलदेव रासो में भी बीच-बीच में बराबर इस साहित्यिक भाषा (हिंदी) को मिलाने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है।"

• "भाषा की प्राचीनता पर विचार करने के पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गाने की चीज होने के कारण इसकी भाषा में समयानुसार बहुत कुछ फेरफार होता आया है। पर लिखित रूप में रक्षित होने के कारण इसका पुराना ढाँचा बहुत कुछ बचा हुआ है।"

• "इसमें आये हुए कुछ फारसी, तुरकी शब्दों की ओर भी ध्यान जाता है। जैसे महल, इनाम, नेजाताजनों (ताजियाना) आदि। ये शब्द पीछे से मिले हुए भी हो सकते हैं और कवि द्वारा व्यवहृत भी। कवि के समय से पहले ही पंजाब में मुसलमानों का प्रवेश हो गया था और वे इधर-उधर जीविका के लिये फैलने लगे थे। अतः ऐसे साधारण शब्दों का प्रचार कोई आश्चर्य की बात नहीं। बीसलदेव के सरदारों में ताजुद्दीन मियाँ भी मौजूद हैं-

महल पलाण्यो ताँजदीन। खुरसाणा चढ़ि चाल्यो गोंड।।"

• "राय बहादुर पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने इसे हम्मीर के समय की रचना कहा है।"

• "बीसलदेवरासो में काव्य के अर्थ में 'रसायण' शब्द बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी 'रसायण' शब्द से होते-होते 'रासो' हो गया है।"

• "नाल्ह के इस बीसलदेव में, जैसा कि होना चाहिये था, न तो उक्त वीर राजा की ऐतिहासिक चढ़ाइयों का वर्णन है, न उसके शौर्य-पराक्रम का। (दिल्ली और झांसी के प्रदेश इन्हीं ने अपने राज्य में मिलाये थे)। श्रृंगार रस की दृष्टि से विवाह और रूठकर विदेश जाने का (प्रोषित पतिका के वर्णन के लिये) मनमाना वर्णन है।"

• "इस छोटी-सी पुस्तक को बीसलदेव ऐसे वीर का 'रासो' कहना खटकता है। पर जब हम देखते हैं कि यह कोई काव्य ग्रंथ नहीं है, केवल गाने के लिये इसे रचा गया था, तो बहुत कुछ समाधान हो जाता है।"

• "यह पुस्तक न तो वस्तु के विचार से और न भाषा के विचार से अपने असली और मूलरूप में कही जा सकती है।"

• इनके (बीसलदेव/विग्रहराज चतुर्थ) वीर चरित्र का बहुत कुछ वर्णन इनके राजकवि सोमदेव रचित 'ललित विग्रहराज नाटक' (संस्कृत) में है 


पृथ्वीराजरासो

• "ये (चंदबरदाई) हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका 'पृथ्वीराजरासो' हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।"

• "इनके पूर्वजों की भूमि पंजाब थी जहाँ लाहौर में इनका जन्म हुआ था। इनका और महाराज पृथ्वीराज का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था।" 

• "ये महाराज पृथ्वीराज के राजकवि ही नहीं उनके सखा और सामंत भी थे; तथा षड्द्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद: शास्त्र, ज्योतिष, पुराण, नाटक और अनेक विद्याओं में पारंगत थे।"

• "इन्हें जालंधरी देवी का इष्ट था जिसकी कृपा से ये अदृष्टकाव्य भी कर सकते थे।"

• "इनका जीवन पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला जुला था कि अलग नहीं किया जा सकता। युद्ध में, आखेट में, सभा में, यात्रा में सदा महाराज के साथ रहते थे, और जहाँ जो बातें होती थीं, सब में सम्मिलित रहते थे।"

• "पृथ्वीराजरासो ढाई हजार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है।" 

• "प्राचीन समय में प्रचलित प्रायः सभी छंदों का व्यवहार हुआ है। मुख्य छंद हैं-कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या।"

• "जैसे 'कादंबरी' के संबंध में प्रसिद्ध है कि उसका पिछला भाग बाण कं पुत्र ने पूरा किया है, वैसे ही रासो के पिछले भाग का भी चंद के पुत्र जल्हण द्वारा पूर्ण किया जाना कहा जाता है। रासो के अनुसार जब शहाबुद्दीन गौरी पृथ्वीराज को कैद करके गजनी ले गया, तब कुछ दिनों पीछे चंद भी वहीं गए। जाते समय कवि ने अपने पुत्र जल्हण के हाथ में रासो की पुस्तक देकर उसे पूर्ण करने का संकेत किया। जल्हण के हाथ में रासो को सौंपे जाने और उसके पूरे किए जाने का उल्लेख रासो में है-


पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृप-काज। 

रघुनाथचरित हनुमंतकृत भूप भोज उद्धरिय जिमि।।

पृथिरास-सुजस कवि चंद कृत चंद-चंद उद्धरिय तिमि।।"

 • "पृथ्वीराजरासो में आबू के यज्ञकुंड से चार क्षत्रियकुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों के अजमेर में राजस्थान से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है।"

• "बहुत से राजाओं के साथ पृथ्वीराज के युद्ध और अनेक राज-कन्याओं के साथ विवाह की कथाएँ रासो में भरी पड़ी हैं।"

 • "पृथ्वीराज विजय के कर्त्ता जयानक ने पृथ्वीराज के मुख्य भाट या बदिराज का नाम 'पृथ्वी भट्ट' लिखा है, चंद का उसमें कहीं नाम नहीं लिया है। यही कहा जा सकता है कि 'चंदबरदाई' नाम का यदि कोई कवि था तो पृथ्वीराज की सभा में न रहा होगा या जयानक के काश्मीर लौट जाने पर आया होगा। अधिक संभव यह जान पड़ता है कि पृथ्वीराज के पुत्र गोविंदराज या उनके भाई हरिराज अथवा इन दोनों में से किसी के वंशज के यहाँ चंद नाम का कोई भट्ट-कवि रहा हो जिसने उनके पूर्वज पृथ्वीराज की वीरता आदि के वर्णन में कुछ रचना की हो।"

• "यह ग्रंथ न तो भाषा के इतिहास के और न साहित्य के इतिहास के जिज्ञासुओं के काम का है

 • "यह पूरा ग्रंथ वास्तव में जाली है।"


भट्टकेदार, मधुकर कवि


• "जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्तिमान किया है उसी प्रकार भट्टकेदार ने कन्नौज के सम्राट जयचंद का गुण गाया है।"

• "रासो में चंद और भट्टकेदार के संवाद का एक स्थान पर उल्लेख भी है।"

• "इनके जयचंद प्रकाश का उल्लेख सिघायच दयालदास कृत 'राठौड़ाँ री ख्यात' में मिलता है जो बीकानेर के राजपुस्तक-भंडार में सुरक्षित है। इस ख्यात में लिखा है कि दयालदास ने आदि से लेकर कन्नौज तक का वृत्तांत इन्हीं दोनों ग्रंथों के आधार पर लिखा है।"

• "भट्ट-भणंत पर यदि विश्वास किया जाय तो केदार महाराज जयचंद के कवि नहीं, सुलतान शहाबुद्दीन गौरी के कविराज थे। 'शिवसिंहसरोज' में भाटों की उत्पत्ति के संबंध में यह विलक्षण कवित्त उद्धृत है-

            प्रथम विधाता ते प्रगट भए वदीजन, 

            पुनि पृथुजज्ञ तें प्रकास सरसात है।

             माने सूत सौनक न. वाँचत पुरान रहे, 

             जस को बखाने महासुख सरसात है।

           चंद चौहान के, केदार गोरी साह जू के 

              गंग अकबर के बखाने गुन गात है।

          काव्य कैसे माँस अजनास धन भाँटन को, 

            लूटि धरै ताको खुरा-खोज मिटि जात है।"


 जगनिक

• "साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ काल-यात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नए अस्त्रों (जैसे, बंदूक, करिचि), देशों और जातियों (जैसे, फिरंगी) के नाम सम्मिलित हो गए हैं और बराबर होते जाते हैं।"

• "यदि यह ग्रंथ साहित्यिक प्रबंधपद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती।"

• "यह गाने के लिये ही रचा गया था इससे पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा की ओर नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूँज बनी रही पर यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं।"

• "आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केंद्र माना जाता है; वहाँ इसके गानेवाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुदेलखंड में- विशेषतः महोबे के आसपास भी इसका चलन बहुत है।"

• "इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण 'आल्हा-खंड' कहते हैं जिससे अनुमान होता है कि आल्हा-संबंधी ये वीर-गीत जगनिक के रचे उस बड़े काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और ऊदल परमाल के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे।"

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