हिंदी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचंद्र शुक्ल आदिकाल 'फुटकाल रचनाएँ ' नोट्स

 

आचार्य रामचंद शुक्ल कृत "हिंदी साहित्य का इतिहास" से 




     आदिकाल           

प्रकरण-4 (फुटकल रचनाएँ)

• आदिकाल में मोटे तौर पर तीन तरह की भाषा मिलती है-

• प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ बद्ध भाषा - अपभ्रंश। इसके भी तीन रूप मिलते हैं-


  * प्रचलित काव्यभाषा-सिद्ध

  * सधुक्कड़ी-नाथ

   *शारंगधर, विद्यापति की बोली-अपभ्रंश

• प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ मुक्त भाषा - देशभाषा। इसके दो रूप हैं- पिंगल और डिंगल।

• प्राकृत की रूढ़ियों से लगभग मुक्त भाषा । विद्यापति पदावली, खुसरो की पहेलियाँ आदि इसके उदाहरण हैं।

• देशभाषा पर भाषा संबंधी पुरानी रूढ़ियों के प्रभाव को लक्षित करते हुए शुक्ल जी ने लिखा था, "जैसे पुराना चावल ही बड़े आदमियों के खाने योग्य समझा जाता है वैसे ही अपने समय से कुछ पुरानी पड़ी हुई परंपरा के गौरव से युक्त भाषा ही पुस्तक रचने वालों के व्यवहार योग्य समझी जाती थी।"

• विद्यापति ने अपनी पदावली और अमीर खुसरो ने अपनी विभिन्न रचनाओं में जनता की बहुत कुछ असली बोलचाल और उसके बीच कहे-सुने जाने वाले पद्यों की भाषा के बहुत कुछ असली रूप का प्रयोग किया। खुसरो ने पश्चिम और विद्यापति ने पूरब की भाषा का प्रयोग किया। उसके पीछे फिर भक्तिकाल के कवियों ने प्रचलित देश-भाषा और साहित्य के बीच पूरा-पूरा सामंजस्य घटित कर दिया।


अमीर खुसरो

• "ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे।"

• "ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदयी थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे।"

• "इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्तिवैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।"

• "खुसरो के नाम पर संगृहीत पहेलियों में कुछ प्रक्षिप्त और पीछे की जोड़ी पहेलियाँ भी मिल गई हैं, इसमें संदेह नहीं।" (उदाहरण- हुक्के वाली पहेली; हुक्का व तंबाकू खुसरो के बहुत बाद जहाँगीर के समय प्रचारित हुआ।)

• "इन्होंने ग्यासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारकशाह तक कई पठान बादशाहों का ज़माना देखा था।" • 

• "जिस ढंग के दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग के पद्य पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई।"

""काव्य भाषा' का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अतः जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें भी जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि,की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है।"

• इनकी हिंदी की रचनाओं में दो प्रकार की भाषा का प्रयोग मिलता है-

• ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सुखनों में ही मिलती है यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है।

• गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख-प्रचलित काव्यभाषा ही है। (यही ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आजाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी-ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।

• खुसरो की भाषा दीर्घ मुख्यपरंपरा के बीच किसी अंश तक शायद कुछ बदल गई होगी, उसका पुरानापन कुछ निकल गया होगा; पर यह निश्चित है कि उसका ढाँचा कवियों और चारणों द्वारा व्यवहृत प्राकृत की रूढ़ियों से जकड़ी काव्यभाषा से भिन्न था।

• "कबीर की अपेक्षा खुसरो का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक था; उसी प्रकार जैसे अंग्रेज़ों का ध्यान बोलचाल की भाषा की ओर अधिक रहता है। खुसरो का लक्ष्य जनता का मनोरंजन था। पर कबीर धर्मोपदेशक थे, अतः उनकी बानी पोथियों की भाषा का सहारा कुछ-न-कुछ खुसरो की अपेक्षा अधिक लिये हुए है।"


विद्यापति

तीन भाषाओं में काव्य-रचना की- संस्कृत, अपभ्रंश और देशभाषा। पर जिसकी रचना में अपने समय की प्रचलित मैथिली भाषा का प्रयोग करने के कारण ये 'मैथिल कोकिल' कहलाए वह इनकी पदावली है।


• विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जॉर्ज ग्रियर्सन ने बिहारी और मैथिली को 'मागधी' (अपभ्रंश) से निकली होने के कारण हिंदी से अलग माना। "पर केवल भाषाशास्त्र की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती है, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिकतर उसकी शब्दावली पर अवलंबित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू और हिंदी का एक ही साहित्य माना जाता। जिस प्रकार हिन्दी साहित्य 'बीसलदेवरासो' पर अपना अधिकार रखता है उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।"

• "आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने 'गीतगोविंद' के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। सूर आदि कृष्णभक्तों के श्रृंगार पदों की भी ऐसे लोग आध्यात्मिक व्याख्या चाहते हैं। पता नहीं बाल लीला के पदों का वे क्या करेंगे। इस संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिये कि लीलाओं का कीर्तन कृष्णभक्ति का एक प्रधान अंग है। जिस रूप में लीलाएँ वर्णित हैं उसी रूप में उनका ग्रहण हुआ है।... इन लीलाओं का दूसरा अर्थ निकालने की आवश्यकता नहीं है।"

• विद्यापति के पदों को प्रायः  श्रृंगार का माना जाता है। राधा-कृष्ण नायिका और नायक हैं। जयदेव के गीतकाव्य के अनुकरण पर इनकी रचना की संभावना व्यक्त की और इनके माधुर्य को अद्भुत माना। विद्यापति को शैव माना। 

•"विद्यापति को कृष्णभक्तों की परंपरा में न समझना चाहिये।"


शुक्ल जी ने राजा हम्मीर तक वीरगाथाकाल को माना। उनके पीछे भी वीरकाव्य की रचना तो हुई, किंतु कवि की प्रवृत्ति बदल चुकी थी। इसे लक्ष्य करते हुए शुक्ल जी ने लिखा, “हिंदी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, पर 900 वर्षों के हिंदी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते।"

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