भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा का संक्षिप्त परिचय


   भारतीय काव्यशास्त्र की परम्परा (आचार्य भरत मुनि से पंडितराज जगन्नाथ तक)


भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्र की सैद्धांतिक धारणाएँ और मान्यताएँ अत्यंत गंभीर और व्यापक हैं। काशास्त्रीय दृष्टि से संस्कृत काव्यशास्त्र बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी सिद्ध होता है। उपलब्ध ग्रंथों के आधार पर 'भरत मुनि' को काव्यशास्त्र का पहला आचार्य माना गया है। पी.वी. काणे ने संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास में चर्चा की है कि 'अग्नि-पुराण', 'विष्णु धर्मोत्तर' में भी इस नृत्य, नाटकों आदि का उल्लेख मिलता है। कुछ विद्वानों ने इस परम्परा का आरम्भ ऋग्वेद और अथर्ववेद के मंत्रों तथा कुछ ने वाल्मीकि रामायण और महाभारत आदि से माना है परन्तु काव्यशास्त्रीय दृष्टि से प्रथम प्रामाणिक ग्रन्थ 'भरतमुनि' का नाट्यशास्त्र ही है। इसके पश्चात् अनेक संस्कृत आचार्यों ने महत्वपूर्ण ग्रन्थों का निर्माण किया और अपने-अपने मतों को स्थापित किया। इनमें भामह का काव्यालंकार, आनंदवर्धन का ध्वन्यालोक, दण्डी का काव्यादर्श, वामन का अलंकार सूत्र, मम्मट का काव्यप्रकाश, राजशेखर का काव्य-मीमांसा, पण्डित विश्वनाथ का साहित्य दर्पण, पण्डित राज जगन्नाथ का रसगंगाधर आदि प्रमुख हैं। यह भी एक संभावना है कि इस समय के अनेक ग्रंथ उपलब्ध ही न हुए हों इसलिए जो भी प्रामाणिक ग्रंथ उपलब्ध हुए उनके आधार पर इन आचार्यों के योगदान को भुलाया नहीं जा सकता है। भारतीय...संस्कृत काव्यशास्त्र के प्रमुख आचार्यों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार


1: आचार्य भरत मुनि- आचार्य भरतमुनि की प्रसिद्धि 'नाट्यशास्त्र' के रचियता के रूप में है। 'नाट्यशास्त्र' को पंचम वेद के समान माना गया है। आचार्य भरत काव्य में रस को सबसे अधिक महत्व देने वाले प्रथम एवं प्रमुख आचार्य हैं। उनके जीवन और व्यक्तित्व के ठोस सबूत ना मिलने की वजह से इनके नाम और जन्म के समय के सम्बन्ध में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता है।

बलदेव उपाध्याय जी के अनुसार- जब कालिदास भरत को देवताओं के नाट्याचार्या के रूप में उल्लिखित करते हैं और नाटकों में आठ रसों के विकास होने तथा अप्सराओं के द्वारा अभिनय किये जाने का निर्देश करते हैं। कालिदास से प्राचीनतर होने से भरतमुनि का समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी से उतर कर नहीं हो सकता।" याज्ञवलक्य स्मृति में 'भरत का अर्थ अभिनेता होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार भरत वस्तुतः एक काल्पनिक नाम है। संस्कृत महाकाव्य के उल्लेखानुसार भरत शब्द का मूल अर्थ नट रहा होगा इसलिए नाटक के नट को 'भरत' कहा जाता था। नाम की भांति यह भी विवादास्पद पहलू है कि नाट्यशास्त्र की रचना अकेले भरतमुनि ने की या अनेक भरतों (नटों) ने की। कालान्तर में यह मान लिया गया कि 'नाट्यशास्त्र' ग्रंथ की रचना भरतमुनि ने की। इस ग्रन्थ का रचनाकाल तृतीय शती ई.पू. से तृतीय शती ई. के बीच का अनुमानित है।


नाट्यशास्त्र के दो संस्करण प्राप्त हुए हैं इनमें (1) काव्यमाला बम्बई (निपर्णय-सागर) के संस्करण में 36 अध्याय और (2) काशी संस्कृत-सीरिज़ काशी (चौखम्बा) के संस्करण में 37 अध्याय हैं। 'नाट्यशास्त्र' के लगभग 12 अध्यायों में विभिन्न काव्यशास्त्रीय तत्वों का विवेचन किया गया है जिसमें रस व नाटक पर विशेष चर्चा की गई है। इसमें दिए गए अनेक सूत्र आज तक सिद्धांत रूप में स्थापित हैं।


2. भामह- अलंकार सम्प्रदाय के महत्वपूर्ण संस्थापक आचार्य 'भामह' कश्मीर के रहने वाले थे। इनके पिताजी का नाम रक्रिल गोमी था। इनका जीवन-काल छठी शती का मध्यकाल है। 'काव्यालंकार' इनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसको भामहालंकार नाम से भी जाना जाता है। काव्यालंकार में छह परिच्छेद और कुल चार सौ श्लोक है। पहले परिच्छेद में काव्य के साधन, लक्षण और भेदों का वर्णन किया गया है। दूसरे और तीसरे परिच्छेद में अलंकारों का वर्णन है। चौथे में भरत दूद्वारा बताए गए दस काव्य दोषों का सम्पूर्ण वर्णन मिलता है पाँचवें परिच्छेद में न्यायविरोधी दोषों की मीमांसा की गई है। छठे में कुछ विवादास्पद पदों के शुद्ध रूपों का विवेचन किया गया है।

              आचार्य भामह काव्य में अलंकारों के प्रयोग के प्रबल समर्थक थे। इन्होंने 'वक्रोक्ति' को सभी अलंकारों का मूल माना है। काव्य-लक्षण सर्वप्रथम इन्होंने ही प्रस्तुत किया है। सबसे पहले इन्होंने ही दस के स्थान पर तीन काव्यगुणों की स्वीकृति दी थी। इनके ग्रंथ काव्यालंकार की महत्ता का प्रमाण इससे भी पता चलता है कि उद्भट जैसे आचार्य ने 'भामह-विवरण' नाम से इनके ग्रंथ पर भाष्य लिखा था। आचार्य  दण्डी ने भी भामह की रचनाओं को आधार रूप में ग्रहण किया था।


3.दण्डी- आचार्य दण्डी दक्षिण भारत के निवासी थे। पी.वी. काणे जी ने उल्लेख किया है कि "दण्डी दामोदर के वंशज थे। दामोदर के पुत्र मनोरथ, मनोरथ के पुत्र कनिष्ठ और कनिष्ठ के पुत्र दण्डी थे। उनकी माता का नाम गौरी था।" दण्डी का समय सातवीं शती का उत्तरार्द्ध माना गया है। इनके तीन ग्रन्थ   उपलब्ध हैं-काव्यादर्श, दशकुमार चरित और अवन्तिसुन्दरीकथा। दण्डी का सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ 'काव्यादर्श' है जिसमें तीन परिच्छेद है और श्लोकों की कुल संख्या 660 है। पहले परिच्छेद में काव्य लक्षण, काव्य-भेद, रीति और गुण का निरूपण है और दूसरे परिच्छेद में अलंकारों का वर्णन किया गया है। तीसरे परिच्छेद में अलंकारों के साथ-साथ काव्य दोषों का भी निरूपण किया गया है।

                   दण्डी अलंकारवाद के समर्थक थे। अलंकार सम्प्रदाय के अनुयायी होने पर भी इन्होंने वैदर्भी और गौड़ी रीतियों का पारस्परिक भेद स्पष्ट किया था इसलिए दण्डी को रीति-सम्प्रदाय के मार्गदर्शक आचार्य के रूप में जाना जाता है। दण्डी सिद्धान्तवादी आचार्य होने के साथ-साथ एक सफल कवि भी थे।

4. वामन- 'वामन' रीति सम्प्रदाय के प्रवर्तन माने जाते हैं। वामन कश्मीरी राजा जयापीड़ के मन्त्री थे। इनका समय आठवीं शती के आसपास का माना गया है। 

'रीतिरात्मा काव्यस्य' कहने वाले वामन का प्रसिद्ध ग्रंथ 'काव्यालंकारसूत्रवृत्ति' है। काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में यह सबसे पहला सूत्र-बद्ध ग्रन्थ है। सूत्रों की वृत्ति भी स्वयं इन्होंने ही लिखी हैं। इस ग्रंथ में 5 परिच्छेद हैं। जिसमें कुल 12 अध्याय हैं, 250 श्लोक और 319 सूत्र हैं। इस ग्रंथ में निम्नलिखित कुछ विशिष्ट सिद्धांतों का उल्लेख हुआ है जैसे-गुण और अलंकारों का परस्पर भेद, रीतियों और वक्रोक्ति का विशिष्ट लक्षण तथा शब्द शुद्धि समीक्षा इत्यादि ।

  डॉ. सत्यदेव चौधरी के अनुसार "वामन रीतिवादी आचार्य थे। इन्होंने रीति को काव्य की आत्मा माना है। इनके मतानुसार गुण रीति के आश्रित हैं। गुण काव्य के नित्य अंग हैं और अलंकार अनित्य अंग। रस को इन्होंने कान्ति नामक गुण से अभिहित किया है। वामन पहले आचार्य हैं, जिन्होंने वक्रोक्ति को लक्षणा का पर्याय मानते हुए इसे अर्थालंकारों में स्थान दिया है।" 

5. उद्भट- उद्भट भी कश्मीरी राजा के सभा पण्डित थे। इनका समय नवीं शती का पूर्वार्द्ध माना गया है। ये आचार्य वामन के समकालीन थे। ये बड़े धनी व्यक्ति माने जाते थे। एक ही राजा के आश्रय में होने पर आचार्य वामन और आचार्य उद्भट साहित्य के क्षेत्र में प्रतिद्वन्द्वी से मालूम पड़ते हैं। आचार्य उद्भट के तीन प्रमुख ग्रन्थ हैं-काव्यालंकार-सार-संग्रह, भामह विवरण और कुमार सम्भव। इनमें से काव्यालंकार-सार-संग्रह ग्रंथ ही उपलब्ध है शेष 2 ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। परन्तु आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त, मम्मट आदि ने उद्भट-सम्मत जिन सिद्धांतों का उल्लेख बार-बार बड़े आदर के साथ किया है उनका मूल स्रोत यही ग्रन्थ प्रतीत होते हैं। इनकी प्रसिद्धि का कारण 'काव्यलंकार-सार-संग्रह' है। इसमें 6 वर्ग हैं, जिनमें 79 कारिकाओं के द्वारा 41 अलंकारों का वर्णन है। अलंकारों के स्वरूप निर्धारण में ये भामह से प्रभावित हैं। उद्भट भी अलंकारवादी आचार्य थे। आचार्य दण्डी के समान ये भी रस भाव आदि को रसवादी अलंकारों के अन्तर्गत ही मानते थे। अलंकारों को व्यवस्थित करने का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है। इन्होंने अर्थभेद से शब्द भेद की कल्पना, शब्द श्लेष और अर्थ श्लेष तथा अलंकारों के योग में श्लेष की प्रबलता आदि की चर्चा अपने इस ग्रंथ में की है।

6. रूद्रट-आचार्य रूद्रट कश्मीर के रहने वाले थे इनका एक अन्य नाम शतानन्द भी था। इनके पिता का नाम वामुक था और वह वेद की सामशाखा के अध्येता थे। इनका जीवन काल नवीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है। इनके ग्रंथ का नाम काव्यालंकार है जिसमें कुल 16 अध्याय हैं। इसमें कुल 734 पद हैं। 16 अध्यायों में से 8 अध्यायों में अलंकारों का वर्णन किया गया है और शेष अध्यायों में काव्यस्वरूप, काव्यभेद, रीति, दोष, रस और नायक-नायिका भेद का वर्णन किया गया है। वैसे तो आचार्य रूद्रट अलंकारवादी युग के आचार्य हैं परन्तु आचार्य भरत के पश्चात् रस का व्यवस्थित और स्वतंत्र निरूपण इन्होंने ही किया है। काव्य में दसवें रस प्रेयस रस की सर्वप्रथम चर्चा रूद्रट ने ही की थी।

 डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय जी के अनुसार- "इन्होंने नये अलंकारों की कल्पना की- और पहली बार अलंकारों का वैज्ञानिक दृष्टि से वर्गीकरण किया तथा वास्तव, औपम्य, अतिश्य और श्लेष को मूलतत्व बताया। प्रेयस् नामक दसवें रस का प्रतिपादन किया। अलंकार की विस्तृत विवेचना करना इनके ग्रंथ का उद्देश्य है।"आचार्य रूद्रट ने ही सर्वप्रथम नायक-नायिका भेद का निरूपण किया था। नायिका के प्रसिदूध तीन भेद स्वकीया, परकीया और सामान्य का भेद और उल्लेख सर्वप्रथम इसी ग्रंथ में मिलता है।


7.आनन्दवर्धन- आचार्य आनन्दवर्धन कश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा के प्रमुख सभापण्डितों में से एक थे। इनका जीवन काल नवीं शती का मध्य भाग है। ध्वन्यालोक' इनका प्रमुख ग्रंथ है। 'ध्वनि काव्य की आत्मा है।' को काव्यशास्त्र में प्रतिष्ठित करने वाले आचार्य आनन्दवर्धन ध्वनि सिद्धान्त के प्रतिष्ठाता है। 'ध्वन्यालोक' में आनन्दवर्धन के मौलिक विचारों, सूक्ष्म-विवेचन और विषय का गहन अध्ययन और प्रस्तुतीकरण इसे भारतीय काव्यशास्त्र में उच्च स्थान प्रदान करता है। इस ग्रंथ के तीन अंश हैं-कारिका, वृत्ति और उदाहरण। 

डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय के अनुसार- "कुछ लोग आनन्द को वृत्तिकार ही स्वीकार करते हैं। जबकि वास्तव में उन्होंने कारिका और वृत्ति दोनों की रचना की है। प्रथम उद्योत में ध्वनि विरोधी मतों की समीक्षा, दूसरे और तीसरे में ध्वनि के प्रकारों का विवेचन तथा चतुर्थ उद्योत में ध्वनि की उपयोगिता का वर्णन है। आनन्दवर्धन की शैली विद्वतापूर्ण, परिपक्व, रोचक और सरस है। इन्होंने अर्जुन चरित, विषमबाण लीला, देवीशतक जैसे सरस काव्य-ग्रंथ भी रचे। किन्तु 'ध्वन्यालोक' ने इनकी कीर्ति को आकाश तक पहुँचा दिया। इन्होंने अभाववाद, भुक्तिवाद, अनिर्वचनीयतावाद जैसे मतों का खण्डन करते हुए ध्वनि तथा व्यजना की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।"

डॉ. सत्यदेव चौधरी के अनुसार- "काव्यशास्त्रीय आचार्यों में आनन्दवर्धन एक युगान्तकारी आचार्य हैं। इन्होंने ध्वनि को काव्य की आत्मा माना। यद्यपि इन्होंने रस को ध्वनि का ही भेद माना है, पर रसध्वनि के प्रति अन्य ध्वनि-भेदों की अपेक्षा इन्होंने अधिक समादर प्रकट किया है। यही कारण है कि अब अलंकार बाह्य आभूषण के रूप में रस के उपकारक मात्र बन गए और वह भी अनिवार्य रूप से नहीं। गुण रीति के विशिष्ट धर्म न होकर रस के ही नित्य धर्म बन गए। रीति संघटना मात्र तथा रसोपकर्ती बन गई। दोषों का अनौचित्य तथा इनकी नित्यानित्यव्यवस्था रस पर ही आधृत हो गई। निष्कर्ष यह है कि इन्होंने काव्यशास्त्रीय विधान को नई दिशा की ओर मोड़ दिया। अब भामह, दण्डी उद्भट और वामन के सिद्धान्त इनके ध्वनि-सिद्धान्त के आगे न केवल बदल गए अपितु मन्द पड़ गए। इनके प्रतिभाशाली व्यक्तित्व ने काव्यशास्त्रीय आचार्यों में विभाजन रेखा खींचकर इन्हें दो भागों में विभक्त कर दिया-पूर्व मध्यकालीन आचार्य और उत्तर मध्यकालीन आचार्य।


8 अभिनवगुप्त-आचार्य अभिनवगुप्त का समय 10वीं शती का अन्त माना जाता है। काव्यशास्त्र के साथ-साथ इनकी दर्शनशास्त्र में भी विशेष रुचि थी। ध्वन्यालोक पर 'लोचन' और नाट्यशास्त्र पर 'अभिनव भारती' नामक टीकाएँ इनकी विद्रवत्ता का प्रमाण है। इन टीकाओं में गम्भीर, मार्मिक एवं गहन विवेचन और व्याख्या के कारण ये टीकाएँ एक स्वतंत्र ग्रन्थ की भांति अपना महत्व रखती हैं। इन्हीं कारणों से अभिनव गुप्त को टीकाकार के स्थान पर आचार्य की भांति ही समझा जाता रहा है। इनका 'अभिव्यक्तित्वाद' रस सिद्धान्त में एक प्रौढ़ एवं व्यवस्थित स्थापना या वाद है। अनेक विद्वानों ने समय-समय पर इसका खण्डन भी किया परन्तु काव्यशास्त्र में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।

9. राजशेखर- आचार्य राजशेखर विदर्भ (बरार) के ब्राह्मण निवासी थे। इनके पिता का नाम दुर्दक, माता का नाम शीलवती और पत्नी का नाम अवन्ति सुन्दरी था जो चौहान कुल की बहुत ही प्रकाण्ड विदुषी कन्या थी। राजशेखर कन्नौज के प्रतिहारवंशी महेन्द्रपाल और महीपाल के राजगुरु थे। इनका जीवनकाल 10वीं शती का पूर्वार्द्ध माना गया है। ये बहुत सी भाषाएँ जानते थे। इन्होंने 'कर्पूरमंजरी, बाल भारत, बाल रामायण, विद्धशाल मंजिका चार नाटकों की रचना की काव्यशास्त्र से सम्बन्धित 'काव्य-मीमांसा' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है जो कि 18 अधिकरणों या भागों में विभक्त है, परन्तु अभी तक 'कवि रहस्य' नामक एक ही भाग प्राप्त हुआ जिसमें काव्य स्वरूप, काव्य-भेद, रीति-प्रकार, कवि भेद, कवि चर्चा, राजदरबारी वैभव, कवि-समय, काल-विभाग आदि नवीन एवं पुरातन विषयों का अद्भुत निरूपण हुआ है।

10. धनंजय और घनिक-माना जाता है कि धनंजय और धनिक दोनों भाई थे। वे दसवीं शती के उत्तरार्द्ध में विद्यमान थे। आचार्य धनंजय का ग्रंथ 'दशरूपक' है और धनिक ने उस पर 'अवलोक' नामक टीका लिखी है जो कि विचारों की दृष्टि से गहन, गम्भीर एवं सारगर्भित है। धनंजय दशरूपक के विषय में भावकत्ववादी एवं ध्वनि विरोधी आचार्य हैं। 'दशरूपक' नाट्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ है। इसमें चार प्रकाश और लगभग 300 कारिकाएँ हैं। पहले प्रकाश में संधि आदि नाटकीय अंगों का निरूपण है। पहले प्रकाश में संधि आदि नाटकीय अंगों का निरूपण है और दूसरे प्रकाश में नायक-नायिका भेद, तीसरे प्रकाश में दृश्य काव्य का निरूपण हे और चौथे प्रकाश में रस-विवेचन है। रसनिष्पति के विषय में इन्होंने व्यंजनावाद को अस्वीकृत करके तात्पर्यवाद को अधिक महत्व दिया है। शांत रस को ये काव्य के लिए तो सही मानते हैं परंतु नाटक के लिए उत्तम नहीं मानते।

11. कुन्तक- डॉ. नगेन्द्र ने 'कुन्तक' का समय 10वीं शती ईसवी का अन्त और 11वीं शती का प्रारम्भ माना है। कुंतक वक्रोक्ति सम्प्रदाय के प्रेरणा स्रोत हैं। वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा कहकर इन्होंने काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति संप्रदाय की स्थापना और प्रतिष्ठा की। इनकी प्रसिद्धि का कारण 'वक्रोक्ति जीवितम् नामक ग्रंथ है। इन्होंने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों का सम्मान तो किया परन्तु अन्धानुकरण नहीं किया। ध्वन्यालोक के पदों का इन्होंने अपने ग्रंथ में जगह-जगह उल्लेख किया है। इन्होंने अपने वक्रोक्ति सिद्धांत और अलंकारों में तारत्म्यता बैठाने का प्रयास किया है। इनके विचारों में मौलिकता है।

               इनके ग्रंथ 'वक्रोक्ति जीवितम्' में चार उन्मेष हैं। पहले उन्मेष में काव्य का प्रयोजन और वक्रोक्ति का स्वरूप बताया गया है तथा वक्रोक्ति के 6 भेद बताए हैं-वर्ण वक्रता, पदपूर्वार्ध वक्रता, प्रत्यय, वक्रता, वाक्य, प्रकरण वक्रता, प्रबन्ध वक्रता। दूसरे उन्मेष में वक्रोक्ति के प्रथम तीन भेदो, तृतीय उन्मेष में चौथे भेद वाक्य-वक्रता का विस्तृत निरूपण और चौथे उन्मेष में अन्तिम दो भेदों-प्रकरण वक्रता और प्रवन्ध-वक्रता का विवरण है।

डॉ. सत्यदेव चौधरी के अनुसार- "कुन्तक प्रतिभासम्पन्न आचार्य थे। इन्होंने वक्रोक्ति को काव्य का 'जीवितम्' माना। इसके उक्त छह भेदों में काव्य के सभी अंगों को अन्तर्भूत किया। कुन्तक की मौलिकता 'स्तुत्य' है। इन्होंने सर्वप्रथम अलंकारों की वर्धमान संख्या को स्थिर करने का मार्ग दिखाया। स्वभावोक्ति अलंकार के सम्बन्ध में इनकी धारणा साहसपूर्ण है और रसवादी अलंकारों का विवेचन नितान्त मौलिक है। वैदर्भीदि मार्गो के 'प्रदेशाभिधानवाद का इन्होंने प्रबल शब्दों में खण्डन किया है तथा परम्परा से हटकर इन्होंने नवीन गुणों का उल्लेख किया है।"

12महिम भट्ट- महिम भट्ट कश्मीर के रहने वाले थे। डॉ. नगेन्द्र ने इनका समय 11वीं शती का मध्यकाल माना है। इनकी रचना का नाम 'व्यक्ति विवेक' है, जिसका शाब्दिक अर्थ है व्यक्ति अर्थात् व्यंजना का विवेक। इस ग्रंथ में तीन विमर्श हैं। इस ग्रंथ के पहले और तीसरे विमर्श में इन्होंने आनन्दवर्द्धन के ध्वनि सिद्धांत को अनुमान में अन्तर्भूत करके अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है और दूसरे विमर्श का सम्बन्ध काव्य दोषों से है जिसे इन्होंने 'अनौचित्य' कहा है। भट्ट जी का यह ग्रंथ अत्यन्त महत्वपूर्ण है, इसमें इन्होंने अनुमितिवाद की स्थापना की। यह ग्रंथ गूढ़ एवं गम्भीर गद्य शैली में होने के कारण काफी जटिल सा लगता है। इसका हिन्दी विवेचन डॉ. ब्रज मोहन चतुर्वेदी ने किया है।

13. क्षेमेन्द्र _क्षेमेन्द्र भी कश्मीर निवासी थे। डॉ. नगेन्द्र ने इनका समय 11वीं शती का उत्तरार्द्ध माना है। काव्यशास्त्र में 'औचित्य सिद्धांत के संस्थापक आचार्य क्षेमेन्द्र हैं। इन्होंने औचित्य को प्रचारित करते हुए प्रदर्शित किया कि औचित्य के बिना रसभंग हो जाता है। इन्होंने माना कि औचित्य काव्य की आत्मा भी है और रस की आत्मा भी। इन्होंने औचित्यविचार चर्या, कविकण्ठा भरण, सुकृतातिलक, भरतमंजरी आदि कुल 40 ग्रंथ लिखे हैं। 

डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय के अनुसार-'कविकण्ठा भरण उनका महत्वपूर्ण ग्रंथ है जिसमें उन्होंने 'चमत्कार' पर एक पूरी संधि लिखी और चमत्कार संप्रदाय की दिशा निर्धारित की। 'औचित्य विचार-चर्चा में उनकी निजी वृत्ति सहित कारिकाएँ, दी गई हैं।" पी.वी. काणे के अनुसार क्षेमेन्द्र के पिता का नाम प्रकाशेन्द्र और पितामाह का नाम सिन्धु था। सम्पन्न घराने के क्षेमेन्द्र के पिता उदार और दानी थे। वे मूलतः शैव थे। बाद में सोमाचार्य के सम्पर्क से वैष्णव बन गये। अपने ग्रन्थों में वे स्वयं को व्यासदाता कहते हैं।

14.भोजराज_ काव्यशास्त्र के परिदृश्य (वैदिक युग से आधुनिक युग तक) में डॉ. सत्यदेव चौधरी आचार्य भोजराज के बारे में लिखते हैं कि "भोजराज धारा के निवासी थे। इनका जीवन काल 11वीं शती का प्रथमार्द्ध है। भोज कवियों के आश्रयदाता होने के अतिरिक्त स्वयं भी प्रगाढ़ आलोचक एवं काव्यशास्त्री थे। काव्यशास्त्र से सम्बद्ध इनके दो ग्रंथ उपलब्ध हैं-सरस्वती कण्ठाभरण और श्रृंगार प्रकाश। ये दोनों ग्रंथ विशालकाय हैं। प्रथम ग्रंथ में पाँच परिच्छेद हैं। इनमें दोष, गुण, अलंकार और रस का विशद और संग्रहात्मक विवेचन है। स्थान-स्थान पर प्राचीन आचार्यों के उद्धरणों से यह ग्रन्थ भरा पड़ा है। श्रृंगार प्रकाश में 36 प्रकाश हैं। प्रथम आठ प्रकाशों में व्याकरण सम्बन्धी सिद्धांतों का प्रतिपादन है। अगले चार प्रकाशों में गुण, दोष, महाकाव्य और नाटक का विवेचन है तथा अन्तिम 24 प्रकाशों में रस का सांगोपांग विशद निरूपण है। भोज का प्रमुख सिद्धांत है-केवल श्रृंगार रस की मान्यता तथा इसी में अन्य रसों का अन्तर्भाव। पर श्रृंगार के विषय में भोज की धारणा परम्परागत श्रृंगार रस से नितान्त विभिन्न है। श्रृंगार प्रकाश अभी तक अप्रकाशित है, पर डॉ. राघवन के अंग्रेजी भाषा में लिखित प्रबंध भोज 'श्रृंगार प्रकाश' से इस ग्रंथ का सम्यक् परिचय मिल जाता है। भोजराज के दोनों ग्रंथों को 'काव्यशास्त्रीय विश्वकोष' कहना चाहिए। सरस्वती कण्ठाभरण पद्यबद्ध ग्रन्थ है, और इसकी शैली सरल सुबोध है, किन्तु श्रृंगार प्रकाश प्रौढ़ में रचित गद्य-पद्यबद्ध ग्रन्थ है।"

 15. मम्मट- आचार्य मम्मट कश्मीर निवासी थे। इनका समय 11वीं शती ईसवी का अन्त माना जाता है। इनकी प्रसिद्धि का कारण 'काव्य प्रकाश' ग्रंथ है। इस ग्रंथ में 10 उल्लास हैं। पहले उल्लास में काव्य लक्षण, काव्य-प्रयोजन, काव्यहेतु और काव्य भेदों की चर्चा की गई है। दूसरे एवं तीसरे उल्लास में शब्द-शक्ति का विवेचन है। चौथे उल्लास में ध्वनिभेदों तथा उनके अन्तर्गत रस भावादि का गंभीर विवेचन है। पाँचवें उल्लास में गुणभूत व्यंग्य-काव्य के भेदों के स्वरूप-निर्देश के उपरान्त ध्वनि की स्थापना की गई है। छठे उल्लास में चित्र काव्य का परिचय है और अंत के चार उल्लास में काव्य दोष, गुण, शब्दालंकार तथा अर्थालंकार का निरूपण किया गया है। अनुप्रास नामक शब्दालंकार के अन्तर्गत वृत्तियों या रीतियों की भी चर्चा की गई है।

भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की रूपरेखा में तेजाल चौधरी लिखते हैं कि "आचार्य मम्मट ने ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी में 'काव्यप्रकाश' की रचना की। 'काव्य प्रकाश' यों तो काव्य के सभी अंगों का निरूपण करता है, परन्तु उसका प्रमुख लक्ष्य ध्वनि की वकालत करना है। मम्मट ने ध्वनि के भेदोभेदों का जितना सुन्दर और सूक्ष्म विवेचन किया है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। आचार्य मम्मट की एक महत्वपूर्ण देन भरतमुनि के रस सूत्र की व्याख्या में आचार्य अभिनव गुप्त की मान्यताओं को सप्रमाण प्रतिष्ठित करना भी है। इस सन्दर्भ में उन्होंने भट्टलोल्लट, शंकुक और भट्ट नायक की मान्यताओं को उद्धृत करते हुए उनका सप्रमाण खण्डन किया है।

'काव्यप्रकाश' ग्रंथ की संस्कृत में ही 70 से अधिक टीकाएँ मिलती है जिससे आचार्य मम्मट की काव्यशास्त्रीय महत्ता और उनके विचारों की उपयोगिता सिद्ध होती है।

16. रूय्यक-आचार्य रूय्यक भी कश्मीरी निवासी थे। इनका समय 12वीं शती का मध्यकाल बताया जाता है। 'अलंकार सर्वस्व' इनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। यह अलंकारों का एक व्यवस्थित, प्रौढ़ और प्रामाणिक ग्रंथ हैं। आचार्य रूय्यक ने इस ग्रंथ में दो नए अलंकारों विकल्प और विचित्र को सम्मिलित किया है। इनका ग्रंथ अलंकारों से सम्बन्धित तो है पर इस आधार पर उन्हें अलंकारवादी आचार्य मानना ठीक नहीं है।

17. विश्वनाथ-आचार्य विश्वनाथ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न वैष्णव थे। ये उड़ीसा निवासी थे। इनके पिता का नाम चंद्रशेखर था जिन्होंने 'पुष्पमाला' और 'भाषार्णव' नामक दो ग्रंथ लिखे थे। इनका समय 14वीं शती का आरम्भ माना जाता है। इन्होंने 'साहित्य दर्पण' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखा जिसका काव्यशास्त्र में महत्वपूर्ण स्थान हैं इस ग्रंथ में 10 परिच्छेद हैं जिसमें काव्य और नाटक दोनों का विवेचन है। इस ग्रंथ के पहले परिच्छेद में काव्य स्वरूप और काव्यभेद, दूसरे परिच्छेद में शब्दशक्ति, तीसरे में रस और नायक-नायिका भेद, चौथे परिच्छेद में ध्वनि तथा गुणी भूत व्यंग्य के प्रकारों का विवेचन है। पाँचवें परिच्छेद में व्यंजना वृत्ति, छठे में दृश्य काव्य, सातवें में काव्य दोष, आठवें में गुण, नवें में रीति और अन्तिम परिच्छेद में अलंकारों का निरूपण किया गया है।

डॉ. सत्यदेव चौधरी के अनुसार- "विश्वनाथ ने मम्मट, आनन्दवर्द्धन, कुन्तक, भोजराज आदि के काव्य-लक्षणों का खण्डन प्रस्तुत करने के उपरान्त रस को काव्य की आत्मा घोषित करते हुए काव्य का लक्षण निर्धारित किया हैं सबसे घोर खण्डन मम्मट के काव्य लक्षण का किया गया है, किन्तु फिर भी अपने ग्रंथ की अधिकांश सामग्री के लिए वे मम्मट के ही ऋणी है। आश्चर्य तो यह है कि रस को काव्य की आत्मा मानते हुए भी इन्होंने आनन्दवर्धन तथा मम्मट के समान रस को ध्वनि के एक भेद- 'असंलक्ष्यक्रमव्यंग्य ध्वनि के रस के उपर माना है। अलंकारों के स्वरूप-निर्देश के लिए इन्होंने मम्मट के अतिरिक्त रूय्यक से भी सहायता ली है। साहित्यदर्पण अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ रहा है। इसका एक ही कारण है काव्यप्रकाश की सूत्रबद्ध और समास-प्रधान शैली की तुलना में सुबोध शैली में प्रायः पद्यबद्ध सिद्धांत प्रतिपादन।

18. विश्वेश्वर कविचन्द्र-डॉ. लक्ष्मी पाण्डेय अपनी पुस्तक साहित्य चिंतन में लिखते हैं कि "क्षेमेन्द्र के कविकण्ठाभरण' के टीकाकार वामन केशव लेले ने भी विश्वेश्वर का समय 14वीं शताब्दी स्वीकार किया है। विश्वेश्वर 'सिंगभूपाल द्वितीय' के आश्रित कचि थे, जो कि आंध्र में संभवतः गौतमी नदी के निकटवर्ती किसी भूभाग के शासक थे। विश्वेश्वर ने 'चमत्कार चंद्रिका' नामक ग्रंथ लिखकर 'चमत्कार तत्व' को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया। इस ग्रंथ में आठ विलास हैं। यह ग्रंथ कारिका वृत्ति शैली में लिखा गया है। 'चमत्कार-युक्त शिक्षा' को काव्य का प्रयोजन मानते हुए ग्रन्थ की भूमिका लिखी गई है।"


19. पंडितराज जगन्नाथ-पंडित राज जगन्नाथ संस्कृत काव्यशास्त्र के अन्तिम महान लेखक थे। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ 'रसगंगाधर' है जोकि पूरा नहीं हो सका। परन्तु फिर भी इसमें रस सम्बन्धी नवीन समीक्षाएँ हैं जिसमें इनकी मौलिकता और प्रौढ़ शैली स्पष्ट झलकती है। पंडितराज जगन्नाथ के पिता का नाम पेरम भट्ट तथा माता का नाम लक्ष्मी देवी था। इनका यौवन काल मुगल शासक शाहजहाँ के दरबार में बीता था। बादशाह शाहजहाँ ने ही इन्हें 'पंडितराज' की उपाधि दी थी। इनकी पत्नी बहुत सुन्दर और विदुषी थी। इनके काव्य में पत्नी प्रेम और प्ररेणा दोनों की झलक दिखलाई पड़ती है। 'रसगंगाघर' रचना के निर्माण काल में ही उन्हें पुत्र शोक और पत्नी शोक का सामना करना पड़ा। इन दो बड़े आघातो को वह सहन नहीं कर पाए और यह ग्रंथ वह पूर्ण नहीं कर पाए और 'रसगंगाधर' के अधूरेपन के साथ ही भारतीय संस्कृत काव्यशास्त्र की परम्परा पर भी विराम लग गया।

                    रसगंगाधर अपूर्ण ग्रंथ हैं। इसमें दो आनन हैं। प्रथम आनन में काव्य-लक्षण, काव्य हेतु तथा रस निरूपण, रस दोष, गुण आदि का सांगोपाग विशद वर्णन है तो दूसरे आनन में ध्वनि के विभिन्न भेदोभेदों की विवेचना, अभिधा-लक्षणा का विवेचन और अंत में अलंकार निरूपण किया गया है। इस ग्रंथ में लगभग 70 अलंकारों का वर्णन किया गया है। इन्होंने काव्य के चार भेद बताए हैं- उत्तमोत्तम, उत्तम, मध्यम तथा अधम। ये ध्वनिवादी आचार्य थे फिर भी रसों को काव्य में अनिवार्य मानते थे इन्होंने ही सर्वप्रथम गुण को रस के अलावा शब्द, अर्थ और रचना का भी धर्म समान रूप से स्वीकार किया है। डॉ. सत्यदेव चौधरी के अनुसार "जगन्नाथ की समर्थ भाषा-शैली, सिद्धांत प्रतिपादन की अद्भुत एवं परिपक्व विचार-शक्ति और खण्डन करने की विलक्षण प्रतिभा इन्हें प्रौढ़ एवं सिद्धहस्त आचार्य मानने को बाध्य करती है।"

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