भारतीय आचार्य द्वारा निरूपित काव्य लक्षणो पर प्रकाश डालिए

 भारतीय आचार्य द्वारा निरूपित काव्य लक्षणो पर प्रकाश डालिए 

               


    काव्य लक्षणा

किसी वस्तु के अथवा विषय के असाधारण अर्थात् विशेष धर्म का कथन करना उसका लक्षण कहलाता है। अनेक विद्वानों ने काव्य के अनेक लक्षण दिए हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में परिभाषा को ही लक्षण के नाम से अभिहीत किया गया है, अतः लक्षण से अभिप्राय काव्य की परिभाषा से है। काव्य का साहित्य किसे कहते हैं, उसके क्या लक्षण है? उसकी कोई समुचित परिभाषा निश्चित की जा सकती है या नहीं? उसका रूप-स्वरूप क्या है यह प्रश्न काव्य शास्त्र के प्रारम्भिक किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है। काव्य की कोई सर्वमान्य परिभाषा अभी तक नहीं दी जा सकी है अतः काव्य के स्वरूप को किसी एक परिभाषा में बाँधना कठिन है। फिर भी काव्य के रूप वैविध्य में अन्तर्निहित कुछ समान तत्वों को ध्यान में रखकर जो काव्य लक्षण विकसित हुए हैं, वे काव्य के स्वरूप को समझने में सहायक अवश्य हैं।

छंदबद्ध रचनाओं को काव्य कहने की परम्परा बहुत प्राचीन है। बाद में काव्य शब्द से अभिप्राय आह्लादपूर्ण रचना हो गई। काव्य का अभिप्राय ऐसी छंदबद्ध रचना से है जो हृदय आह्लाकारिणी है और हमें आनंद प्रदान करती है। संस्कृत काव्य-शास्त्र के आचार्यों राजशेखर, कुंतक आदि ने साहित्य शब्द का प्रयोग काव्य के व्यापक अर्थ में किया है। इसके अनुसार हिन्दी साहित्य कोश में भी स्वीकार किया गया है कि साहित्य = साहित्य यत् अर्थात् शब्द और अर्थ का सहभाव । काव्यशास्त्र की आचार्य परम्परा बहुत विस्तृत है इन्हीं की परिभाषाओं के आधार पर किसी काव्य लक्षण की उपादेयता का मूल्यांकन किया जा सकता है।

            आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में नाटक को काव्य का एक रूप माना है। नाट्यशास्त्र में काव्य का कोई लक्षण नहीं दिया गया, किन्तु काव्य के अनेक अंगों का विवेचन अवश्य किया गया है। जिसके अंतर्गत रस, गुण और अलंकार का समावेश है। आचार्य भरतमुनि के नाट्य संबंधी विचारों का आगे आने वाले काव्य लक्षण पर भी प्रभाव देखा जा सकता है।


             मूदुललित पदाढयं गूढ़ शब्दार्थहीनम् 

            जनपद सुखबोध्यं युक्तिम-नृत्ययोज्यम् ।

             बहुरसकृतमार्ग संधिसंधानयुक्तम् 

           स भवति शुभ काव्यं नाटक प्रेक्षकाणाम्॥


अर्थात् जिस नाटक में मृदुललित पदावली हो, शब्द और अर्थ में स्पष्टता हो, जो जन सामान्य के लिये सुबोध हो, जिसमें यौक्तिक संगति हो, जो नृत्य युक्त हो, जिसमें सरसता हो और जो संधियों से युक्त हो वही नाट्यकृति सुन्दर काव्य कृति मानी जाती है।

आचार्य भामह ने सर्वप्रथम काव्य के लक्षण के स्वरूप को स्पष्ट शब्दों में प्रस्तुत किया, शब्दार्थों सहितौ काव्यं' (काव्यालंकार-1/16)

        अर्थात् शब्द और अर्थ दोनों का सहित-भाव काव्य कहलाता है। भामह ने काव्य में शब्दगत और अर्थगत दोनों प्रकार के अलंकारों का चमत्कार अभीष्ट माना है, अतः इनका यह लक्षण केवल काव्य पर ही घटित नहीं होता है। लेकिन भामह की इसी मान्यता से साहित्य शब्द का प्रयोग काव्य के पर्याय के रूप में आरंभ हुआ। अतः शब्द और अर्थ का सहभाव यानि समग्र भाव ही काव्य है। 

            आचार्य रूद्रट काव्य लक्षण के स्वरूप से संबंधित भामह की काव्य परिभाषा का समर्थन करते हुये लिखते हैं- 'ननु शब्दार्थों काव्यम्' । अर्थात् निस्संदेह शब्द और अर्थ ही काव्य है। भामह ने माना है कि काव्य के लिये शब्द का भी महत्व है और अर्थ का भी। इसलिये भामह काव्य लक्षण में 'सहितौ' पर बल देते हैं। भामह का काव्य लक्षण आदर्श लक्षण नहीं है यह काव्य की परिभाषा अत्यंत व्यापक है, क्योंकि इसके क्षेत्र में काव्य के अतिरिक्त शास्त्र, इतिहास, वार्तालाप आदि सभी आ जाते हैं। इस कारण इसमें अतिव्याप्ति दोष है। 'शब्दार्थो सहितो' से भामह का अभिप्राय है शब्द और अर्थ दोनों की विशेषताएँ जिसमें प्रकट हो ऐसा दोनों का संघटन। इस प्रकार शब्द और अर्थ का सहभाव तो ज्ञान-विज्ञान और वाणी के प्रत्येक रूप में मिलता है, फिर काव्य में इसकी क्या विशिष्टता? भामह के इस क्राव्य लक्षण में शब्द और अर्थ की बात की गयी है, शब्द और अर्थ तो काव्य का शरीर है, काव्य की आत्मा अर्थात रस की यहाँ अवहेलना है। इस प्रकार इसमें अव्याप्ति दोष है। इसी के आगे आचार्यों ने लक्षण का अनुकरण न कर काव्य की अंतर्भूत विशेषता या आत्मा की खोज करने का प्रयत्न किया। 

         आचार्य दण्डी ने अपने ग्रन्थ काव्यादर्श में काव्य लक्षण के स्वरूप के संबंध में स्वतंत्र विचार प्रस्तुत किया है।

           'शरीरंतावादिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली ।'

                                            (काव्यादर्श-दण्डी 1/102)


अर्थात् इष्ट अर्थ से परिपूर्ण पद रचना काव्य का शरीर है। दूसरे शब्दों में जो रचना काव्य के लिए अभिलक्षित योग्यता से युक्त हो और कवि प्रतिभा से युक्त सुन्दर पदावली से व्यवच्छिन्न हो, काव्य कहलाती है। इसमें आचार्य दण्डी ने काव्य के अर्थ की अपेक्षा उसे प्रस्तुत करने वाली भाषा को अधिक महत्व दिया है। दण्डी के अनुसार शब्द-अर्थ रस-सौंदर्य से विशिष्ट पदावली ही काव्य है। स्पष्टतः आचार्य दण्डी यह मानते थे कि काव्य में अर्थ गौण और उसका निरूपण करने वाली भाषा प्रधान होती है। दण्डी ने काव्य में अलंकारों को महत्व देते हुए लिखा-

         'काव्यशोभाकरान धर्मानि अलंकारान प्रचक्षते,'

                                         (काव्यादर्श-दण्डी 1/14)

आचार्य वामन के अनुसार 'रीतिरात्मा काव्यस्थ' अर्थात् रीति (शैली) ही काव्य की आत्मा है। वामन गुण और अलंकार से संयुक्त रचना को काव्य कहते हैं वे अलंकार को शब्द तथा अर्थ को धर्म और रीति को काव्य का धर्म कहकर भामह दण्डी से भिन्नता प्रकट करते हैं।

         आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का व्यापक गुण मानते हुए काव्य की आत्मा कहा।

            'शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि

            बन्धे व्यवस्थितै काव्यं तद्धिह्लादकारिणी।।'

         अर्थात् वे शब्द और अर्थ काव्य कहलाते हैं जो कवि के वक्र व्यापार से युक्त हो, और सहृदय को आनंद प्रदान करें। अतः आचार्य कुन्तक को शब्द और अर्थ का ऐसा सहयोग अभीष्ट है जिसमें काव्य वक्रोक्ति के चमत्कार से युक्त हो और जो सहृदय को आह्लादित करने की शक्ति रखता हो।कुन्तक  ने स्पष्ट किया है कि वक्रता के अभाव में काव्य में रस आदि आह्लादक तत्व का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। किन्तु कुन्तक की यह काव्य परिभाषा सर्वथा पूर्ण या दोष मुक्त नहीं है इस काव्य लक्षण परिभाषा की सीमा यह है कि हमें 'वक्रोक्ति' के विषय में समझना पड़ता है। वक्रोक्ति शब्द पारिभाषिक है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। इस प्रकार यह परिभाषा भी काव्य के बहिरंग पर ही अधिक बल देती है।

                         आचार्य मम्मट ने भारतीय संस्कृत काव्य शास्त्र की सर्वाधिक महत्वपूर्ण परिभाषा प्रस्तुत की है। मम्मट ने अलंकारों की अनिवार्यता का खंडन करने के लिये अपने ग्रन्थ काव्यप्रकाश में यह परिभाषा दी :

     'तद्-दौषो शब्दार्थो सगुणवावनलंकृति पुनः क्वापि'

मम्मट के अनुसार ऐसे शब्द अर्थ को काव्य माना जाता है जो अदोष, गुण युक्त और कहीं-कहीं अनलंकृत भी हो, अर्थात् सामान्यतः अलंकृत हों। स्पष्ट है कि ऐसे शब्दों और अर्थों का समूह जो दोषरहित और गुण मंडित हो भले ही कभी-कभी अलंकार विहीन हो काव्य कहलाता है। इस परिभाषा में दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता दी गई है और अलंकारों को नितांत आवश्यक नहीं माना गया। मम्मट की यह परिभाषा सर्वथा एकांगी है। आचार्य मम्मट ने अपनी परिभाषा में दोष रहित पर जोर दिया है किन्तु शायद ही कोई ऐसा काव्य हो जिसमें कोई दोष न निकाला जा सके। श्रेष्ठ कविताओं में भी कभी-कभार दोष निकल आता है और दोष निकल आने पर भी हम उसे कविता की श्रेणी से खारिज नहीं कर देते। ऐसे ही कहीं-कहीं अलंकार से रहित होना लक्षण की दृष्टि से कोई विशेषता नहीं है यदि अलंकार कविता के लिये आवश्यक ही नहीं है तो उनकी चर्चा का ही कोई औचित्य नहीं है। सगुण शब्द भी काव्य की कोई महत्वपूर्ण विशेषता प्रकट नहीं करता, क्योंकि गुण बड़ा व्यापक अर्थ देने वाला शब्द है। इस परिभाषा में न रस का संकेत है, न ध्वनि, न वक्रोक्ति का। 

        आचार्य विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में काव्य लक्षण प्रस्तुत किया है-

                 वाक्यं रसात्मकं काव्यम्'

                    (साहित्य दर्पण, विश्वनाथ, प्रथम परिच्छेद)

अर्थात् रसात्मक वाक्य काव्य कहलाता है। रस साहित्य में वह आनंद है जो विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से निष्पन्न होता है। विश्वनाथ ने माना है कि गुण, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि सभी तो रस के पोषक हैं रसात्मक वाक्य में शब्द और अर्थ दोनों समाहित हैं शास्त्रीय दृष्टि से जिस वाक्य में रस संपादन हुआ हो उसे ही काव्य माने तो काव्य का क्षेत्र संकीर्ण हो जाएगा और अनेक काव्य पंक्तियाँ उसके क्षेत्र से निकल जाएँगी। रस के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये विश्वनाथ ने लिखा है-


               'सत्वोद्रेकादखंड स्वप्रकाशानंद चिन्मयः ।

                वेदातरस्पर्शशून्यो ब्रहमास्वाद-सहोदरः ।

              लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित् प्रभातृमिः ।

               स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ।

                                            (साहित्य दर्पणः विश्वनाथ)


- आचार्य विश्वनाथ के अनुसार रस के इस स्वरूप विवेचन में मुख्यतः अखंड, लोकोत्तर और आनंदात्मक माना गया है काव्य में अखंड सौदंर्यानुभूति की व्यंजना होती है और सहृदय के मन पर काव्य का एक अखंड प्रभाव पड़ता है। पर 'रसात्मक' कठिन परिभाषिक अवधारणा है। इस अवधारणा को समझ पाना 'सहृदय' के लेए सहज नहीं है। विश्वनाथ ने रस को काव्य का मूल मानते हुये काव्य के बाह्य पक्ष पर बल दिया है। काव्य के अन्य तत्व जैसे उक्ति, वैचित्र्य, अलंकार आदि पर कोई बल नहीं दिया है। आचार्य हेमचन्द ने काव्य लक्षण के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये जो परिभाषा दी है, वह आचार्य मम्मट की पद्धति पर ही है-


           'अदौषो सगुणै सालंकारो च शब्दार्थों काव्यम्'

                                             (काव्यानुशासनः हेमचन्द)


आचार्य हेमचन्द के अनुसार काव्य में एक साथ दोषहीनता, गुण और अलंकार निवार्य हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में काव्य के सीमित क्षेत्र को ही यह परिभाषा पने भीतर समेटती है। अलंकार, गुण, दोष यह स्वयं शास्त्रीय शब्द हैं। इस रह आचार्य हेमचन्द के इस लक्षण के द्वारा काव्य की धारणा स्पष्ट नहीं की सकती।

अलंकारवादी आचार्य जयदेव काव्य परिभाषा में रस अलंकार आदि सभी तत्वों को सम्मिलित कर कहा _

           'अगीकरोति यः काव्यं शब्दार्थवनलंकृति।

             असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलंकृति ॥

              निर्दोषा लक्षणावती सारीतिर्गुणभूषणा ।

             सालंकार रसानेकवृत्तिवक्किाव्यनाम।।

                                             (चन्द्रालोकः जयदेव)


अर्थात् वह वाणी जो दोष रहित हो गुणों से युक्त रीति वाली लक्षणवती तथा अलंकारों और रसों से युक्त हो काव्य कहलाती है। 

आचार्य पण्डितराज जगन्नाथ ने अपना काव्य लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया है-

           'रमणीयार्थ-प्रतिपादकः शब्दः काव्यंम्।'

                                   (जगन्नाथ, रसगंगाधर प्रथम आनन)


अर्थात् रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कहते हैं। दूसरे शब्दों में जिसे सुनकर चित्त प्रसन्न हो ऐसे अर्थ की व्यंजना कराने वाली शब्दावली काव्य है। पण्डितराज जगन्नाथ ने रमणीय का अर्थ किया है लोकोत्तर चमत्कारी अर्थात् वैसे शब्द को काव्य कहेंगे जिसमें अलौकिक चमत्कार भरा हो। तात्पर्य है कि लौकिक आनंद सीमित है किन्तु काव्य का आनंद असीम है। जगन्नाथ ने मम्मट द्वारा दिए गए शब्दार्थ के चार विशेषणों के स्थान पर एक विशेषण का प्रयोग किया। वह विशेषण है रमणीय चित्त जिसमें रमण करेगा उसमें दोष स्वभावतः नहीं होगा। चित्त इतना सूक्ष्मदर्शी है कि दोष आने पर वह उसके आनंद में स्वयं ही बाधा आ जायेगी। इस परिभाषा में शब्द प्राधान्यवादी विचारधारा का समर्थन किया गया है। अर्थ की रमणीयता का उल्लेख परिभाषा में है पर गौण रूप में। इस प्रकार पण्डित राज जगन्नाथ ने अपनी परिभाषा में अर्थ को गौण और भाषा को प्रधान माना है। स्पष्टतया संस्कृत काव्य शास्त्र में काव्य की परिभाषा मुख्यतः आह्लाद या आनंद तत्व पर आधारित रही। यद्यपि इन आचार्यों ने रस, अलंकार, गुण, वक्रोक्ति, रमणीयता आदि का दृष्टिकोण प्रकट किया परन्तु अपनी काव्य परिभाषाओं में उन्होंने आनंद पर ही दृष्टि केन्द्रित रखी। अतः संस्कृत काव्यशास्त्रीय आचार्यों की काव्य परिभाषा को विद्वानों ने कुछ इस प्रकार समाहित किया है- 'रस, अलंकार आदि के संयोजन से रमणीक शब्दार्थ से युक्त सरस वाणी ही काव्य है।

' हिन्दी साहित्य में काव्य लक्षण की परम्परा रीतिकाल से आरंभ होती है। रीतिकाल अनेक विद्वानों ने काव्य लक्षण की परिभाषा प्रस्तुत की है लेकिन इनके लक्षणों में कोई नवीनता न होकर संस्कृत के काव्य लक्षणों से प्रभावित है। आचार्य कुलपति मिश्र ने अपने ग्रन्थ रस रहस्य में काव्य को पारिभाषित करते हुये कहा है _ 


          "जग ते अदभुत सुख सदन, शब्द, अर्थ कवित्त ।

           ' यह लक्षण मैंने कियो, समुझि अर्थ बहु चित्त।"

                                            (रस रहस्यः कुलपति मिश्र)

अर्थात् लौकिक या लोकोत्तर आनंद को प्रदान करने वाले शब्द और अर्थ को काव्य कहते हैं।

सूरति मिश्र ने 'काव्य सिद्धांत' में काव्य लक्षण कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया है-


        "बरनन मनरंजन जहाँ, रीति अलौकिक होई ।

   निपुण कर्म कवि कौ जु तिहिं, काव्य कहत सब कोई॥"


अर्थात् लोकोत्तर रीति से मनोरंजन वर्णन काव्य है।

ठाकुर कवि की मान्यता है कि पंडित और काव्य प्रवीन व्यक्तियों के चित्त को आह्लादित करने वाली रचना को काव्य कहते हैं-


'पंडित और प्रवीनन को जोई चित्त हरै सो कवित्त कहोवे।'


कवि चिंतामणि ने 'कविकुलकल्पतरू' में काव्य की परिभाषा देते हुये रसयुक्त काव्य को ही काव्य माना है।

हिन्दी के आधुनिक मनीषियों और आलोचकों ने भी काव्य लक्षण दिये हैं। हाँलाकि इनके काव्यलक्षण भी संस्कृत आचार्यों के काव्य लक्षणों से प्रभावित है फिर भी इनके लक्षणों में इनकी कुछ मौलिकता दिखती है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने शब्द और अर्थ को व्यापक सन्दर्भ देते हुए सामाजिकता से जोड़ा, साहित्य में सादगी, असलियत और जोश के गुणों पर बल देने वाले आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पहली बार रीतिकालीन श्रृंगार वर्णन, नायिका भेद आदि का विरोध करके कविता को सामान्य जन जीवन से जोड़ा। उनके अनुसार अंतःकरण की वृत्तियों के चित्र का नाम कविता हैं। उन्होंने 'काव्य और कविता' में काव्य लक्षण के विषय में कहा- 'यदि कविता में चमत्कार नहीं, कोई विलक्षणता नहीं तो उससे आनंद की प्राप्ति नहीं हो सकती।'

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने काव्य को जीवन और जगत की अभिव्यक्ति माना। 'चिंतामणि' में काव्य को पारिभाषित करते हुये उन्होंने कहा है- 'जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्तावस्था के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं।... इस साधना को हम भावयोग कहते हैं और कर्म योग और ज्ञान योग के समकक्ष मानते हैं।

आचार्य शुक्ल अपने काव्य लक्षण के स्वरूप में काव्य को जीवन जगत के यथार्थ से संबद्ध करने का संकेत देते हैं।

छायावादी कवियों में जयशंकर प्रसाद ने काव्य की परिभाषा इस प्रकार दी है:- 'काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है जिसका सम्बन्ध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञानधारा है। ...आत्मा की मनन शक्ति की असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारूत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पनात्मक अनुभूति कही जा सकती है।

- डॉ. नगेन्द्र ने काव्य लक्षण प्रस्तुत करते हुए लिखा है- 'रमणीय अनुभूति और उक्ति वैचित्र्य और छंद का समंजित रूप ही काव्य है।' इस प्रकार डॉ. नगेन्द्र रसात्मक अनुभूति को ही काव्य मानते हैं।

स्पष्टतः हिन्दी साहित्य के विद्वानों द्वारा कोई ऐसी परिभाषा प्रस्तुत नहीं की गई जिसमें स्वरूप को लेकर कोई नई उद्भावना प्रकट की गई हो। हिन्दी साहित्य विचारकों ने कुछ परम्परागत विचारों के साथ कुछ पाश्चात्य काव्य लक्षण सम्बन्धी विचार मिलाकर काव्य परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं।

पाश्चात्य काव्य चिंतन में भी विभिन्न काव्याचार्यों ने काव्य लक्षण दिये हैं उनका मूल्यांकन भी यहाँ अपेक्षित है।

प्लेटो ने काव्य को 'अनुकृति की अनुकृति' कहकर त्याज्य माना है। प्लेटो के अनुसार 'भौतिक पदार्थ सत्य की अनुकृति है और काव्य रस अनुकृति की अनुकृति है अतः यह अनुकरण का भी अनुकरण होने के कारण त्याज्य है।' इस प्रकार अरस्तु से पूर्व प्लेटो ने कविता को अनावश्यक ठहराते हुये भी उसकी प्रभाव शक्ति को स्वीकार किया है।

अरस्तू के अनुसार काव्य की परिभाषा 'कविता एक कला है। कला प्रकृति का अनुकरण है। महाकाव्य त्रासदी, कामदी आदि सामान्य रूप में अनुकरण के ही प्रकार है।' अरस्तू जीवन तथा जगत का कल्पनात्मक पुनः सृजन काव्य को मानते हैं।

                 मैथ्यू आर्नल्ड ने 'कविता को मूलतः जीवन की आलोचना या व्याख्या माना है। वर्डस्वर्थ ने काव्य में भाव तत्व को प्रमुखता देते हुये कविता को सघन भावानुभूति का सहजोच्छलन माना है। काडवेल ने काव्य के भौतिकवादी आधार को महत्व दिया।'

"Art is the product of society as the pearl is the product of the oyster-Illusion and Reality." 

कॉलरिज के अनुसार, "poetry is the spontaneour overflow of powerful feeling. It takes its origin from emotions recollected in   tranquillity. 

अर्थात् कविता शान्ति के क्षणों में स्मरण किये गए प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन है।"


• वस्तुतः भारतीय एवं पाश्चात्य आचार्यों द्वारा दिये गए काव्य लक्षणों से स्पष्ट होता है कि काव्य की परिभाषा ऐसी हो जिसमें सब प्रकार के काव्य प्रयास समा सकें। पाश्चात्य विद्वान भाषा के माध्यम से सौंदर्य की अभिव्यक्ति को काव्य मानते हैं, वहीं भारतीय आचार्य सरल शब्दार्थ को काव्य मानते हैं। काव्य के सभी लक्षण इन परिभाषाओं में समाहित होने के कारण ये परिभाषाएँ ही सर्वाधिक तर्कसंगत मानी जा सकती है ..

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