काव्य प्रयोजन

 भारतीय और पाश्चात्य आचार्य / विद्वानो द्वारा निरूपित  काव्य प्रयोजन पर प्रकाश डालिए?

         काव्य प्रयोजन           

यह निर्विवाद है कि काव्य सोद्देश्य व प्रयोजनशील होता है। काव्य प्रयोजन पर प्रायः सभी आचार्यों ने विचार किया है। सभी आचार्यों के सिद्धांतों की परिणति इन दोनों बातों में होती है।

 1. काव्य द्वारा आनन्द प्राप्ति का प्रयोजन,

 2. लोककल्याण। 

दूसरे शब्दों में काव्य का उद्देश्य ही काव्य प्रयोजन कहलाता है। काव्य प्रयोजन का एक विभाजन और भी हो सकता है, वह है साहित्यकार की दृष्टि से काव्य प्रयोजन व सहृदय की दृष्टि से काव्य का प्रयोजन। एक रचनाकार की दृष्टि से हृदयानुभूतियों की अभिव्यक्ति ही काव्य को उत्तम प्रयोजन है। और उन अनुभूतियों से एकाकार होने अर्थात् साधारणीकरण करने की प्रवृति सहृदय का मूल प्रयोजन है।




काव्य प्रयोजन के संदर्भ में यदि आनन्द व लोककल्याण की चर्चा करें तो सभी संस्कृति साहित्य शक्तियों की विचारधारा इन्हीं दो तत्वों की पक्षधर है। आचार्य भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में जिन नाट्य प्रयोजनों का उल्लेख किया है उनमें से अधिकांश परवर्ती आचार्यों द्वारा काव्य प्रयोजन के रूप में स्वीकृत हुए है। भरत मुनि ने काव्य को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का साधक, लोककल्याणकारी, बुद्धि का वर्धक तथा लोकोपदेश माना है।


धर्म्यशस्यमायुष्यं हितं बुद्धिवर्धनम 

लोकोपदेशजननं नाटयमेतद् भविष्यति ।।

                                                  

भरमुनि ने काव्य का पहला प्रयोजन बताया है धर्म अर्थात कर्तव्य बुद्धि। प्रत्येक सामाजिक का समाज के प्रति कोई दायित्व है। अतः रचनाकार का मन ऐसी रचना में रमता है जो समाज को उचित मार्ग पर अग्रसर करे। यह भी निश्चित है कि जिस रचना को समाज ने स्वीकार कर लिया है वह कवि के लिए यश प्रदायिनी भी होगी। अतः यश भरतमुनि का दूसरा प्रयोजन है। भरतमुनि ने काव्य प्रयोजन में तीसरा स्थान आयुष्म को दिया है। इसके अन्तर्गत उन्होंने कहा है कि नष्यानुशीलन से या सृजन से प्राप्त आनंद ही आयुवर्धक होता है। किन्तु इस प्रयोजन में संभवतः परवर्ती आचार्यों ने कुछ कमी देखी, वे इसमें स्पष्टता और सटीकता के अभाव के कारण इसका उल्लेख अपने ग्रंथों में नहीं करते। काव्य प्रयोजन में चौथा और पांचवां प्रयोजन रचनाकार और पाठक दोनों पर लागू होता है। काव्यनुशीलन और पाठक की रचना बुद्धि में परिष्कार लातें हैं। काव्य लोकहिताकारी तथा लोकमंगलकारी है। यह प्रेषक की बुद्धि का विकास करता है तथा जनमानस में सदाचार के उपदेश का संचार करता है।


भामह ने भरत के समान ही अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष एवं प्रीति को काव्य का प्रमुख तत्व स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में उन्होंने सामान्य काव्य (अकाव्य) के भी लक्षण स्वीकार किए हैं, वे हैं-धर्म, प्रचार, दण्ड से रक्षा एवं व्याधि से सुरक्षा । भरतमुनि के पश्चात भामह ने अपने ग्रन्थ 'काव्यालंकार' में काव्य प्रयोजनों पर प्रकाश डाला है। भामह ने अपने ग्रन्थ में पुरुषार्थ चतुष्टय (चारों पुरुषार्थों) धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष के अतिरिक्त कलाओं में विलक्षणता, प्रीति एवं कीर्ति को भी काव्य रचना का प्रयोजन माना।


'धर्मार्थकाममोक्षेषु वैचक्षण्यं कलासु च।

 करोति कीर्ति प्रीति च साधुकाव्यनिबंधमll


यदि भरत एवं भामह दोनों के काव्य प्रयोजन के सन्दर्भ में विश्लेषित मतों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो हम पाते हैं कि भरत का धर्म भामह के धर्म में विद्यमान है। भरत ने यशस्य शब्द का प्रयोग किया हे तो भामह ने कीर्ति का। भरत के लोकोपदेश का भामह के अर्थ और काम में समावेश किया जा सकता है। भामह का वैचक्षण्मं कलासु भरत के बुद्धिविवर्द्धनम् का ही पर्याय प्रतीत होता है। भामत ने जिन काव्य प्रयोजन की चर्चा की उनमें काव्य की उपयोगिता का स्पष्ट निर्देश है।


भामह की भांति वामन (काव्यालंकार सूत्रवृति 1/110) ने काव्य को दृष्ट (ऐहिक) एवं अदृष्ट (आमुष्मिक) फलदायी माना है। साथ ही, उन्होंने उत्तम कवियों के लिए कीर्ति ने भी एक प्रच्छन्न प्रयोजन बताया है।

'काव्यं सदृष्टार्थ प्रीति कीर्ति हेतुत्वात।' 


आचार्य वामन ने अपने काव्यालंकार नामक ग्रन्थ में काव्य के प्रयोजनों पर विचार किया है। वामन ने कीर्ति और प्रीति को काव्य का प्रयोजन माना प्रीति अर्थात् आनंद की दृष्टि से काव्य का प्रयोजन है और कीर्ति अर्थात् यश कवि की दृष्टि से। काव्य से सामाजिक को प्राप्त होने वाला आनंद प्रत्यक्ष दृष्ट या अनुभूत होता है तथा कवि को प्राप्त होने वाला यश अदृष्ट होता है। इनमें वामन भी कीर्ति को अधिक महत्व देते हुए प्रतीत होते हैं क्योंकि उन्होंने कीर्ति को स्वर्गकला और सृष्टि पर्यंत रहने वाली निधि बताया है। इस प्रकार वामन भामह के मत का अनुसरण मात्र करते हैं।

 दण्डी ने 'काव्यार्द' के काव्य प्रयोजन सम्बन्धी आरम्भिक चार श्लोकों में सहृदयों की प्रियता कीर्ति का विस्तार, धनार्जन, विपति से रक्षा, असाधारण का आनन्द एवं मनोवांछित फल की प्राप्ति, काव्य का प्रयोग स्वीकार किया है। वक्रोक्ति वादी कुंतक ने काव्य का प्रयोजन काम, मोक्ष, अर्थात् चतुर्वर्ग फल के आस्वादन से बढ़कर प्रयोजन अंतस चमत्कार और उसका विस्तार या उत्पत्ति को माना है। 

     कुंतक काव्य प्रयोजन के सम्बन्ध में लिखते हैं-


        " चतुर्वर्गफलास्वादमप्यतिक्रम्य' तद्विदाम ।

          काव्या मृतरसेनांतश्चमत्कारो वितन्यते।।'


    कृतक के अनुसार सुन्दर व्यवहार का ज्ञान देना और इन सबसे बढ़कर  हृदय में लोकोत्तर चमत्कार और आह्लाद उत्पन्न करना। कुंतक के परवर्ती आचार्यों  ने भी थोड़े-बहुत परिवर्तन के साथ इन्हीं काव्य प्रयोजनों का उल्लेख किया है। 

रूद्रट ज्ञेय ने काव्य प्रयोजन का उल्लेख करते हुए कहा है कि संसार में जो कुछ शेष है उसका ज्ञान देना काव्य का प्रयोजन है। रूद्रट के अनुसार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों से सहृदय पाठक को अवगत कराना। अनिष्ट और विपत्ति का निवारण, रोग विमुक्ति तथा अभीष्ट वर की प्राप्ति काव्य रचना के प्रयोजन है-


'धर्मादिसाधनोपायः सुकुमारक्रमोदितः ।

काव्यबंधोभिजातानां सहृदयाहलादकारकः ।।'


रूद्रट ने पुरुषार्थ चतुष्टय को काव्य प्रयोजन माना तथा काव्य प्रयोजन में आह्लाद को प्रधानता देते हुए चतुर्थ की चर्चा की। इस प्रकार रूद्रट ने काव्य का प्रयोजन कवि के लिए यश, अर्थ और इच्छा प्राप्ति और सामाजिक के लिए पुरुषार्थ चतुष्टय स्वीकार किया है। अभिनव गुप्त ने साहित्यिक शब्दावली में रस को ही आनंद का पर्याय माना है इसलिए काव्य का प्रथम प्रयोजन उन्होंने आनंद साधना माना है। अर्थात् कवि तथा सामाजिक के लिए काव्य का प्रयोजन आनंद की प्राप्ति है।

      विश्वनाथ ने अपने ग्रन्थ साहित्यदर्पण में लिखा है-


'चतुर्वर्गफलप्राप्ति सुखदंपधियापि । 

काव्यादेव यतस्तेन तत्स्वरूप प्रचक्षते ॥'


इस प्रकार विश्वनाथ ने चारों पुरुषार्थों की धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति को प्रयोजन माना है।


आनन्दवर्धन ने ध्वन्यालोक में चतुर्वर्ग फल की प्राप्ति को प्रयोजन के रूप में स्वीकार किया है। उन्होंने ध्वनि को सहृदय के हृदय का आनंद कहकर प्रकारांतर ते ही काव्य का प्रयोजन माना है। उनके अनुसार सहृदय में सामाजिक और कवि दोनों समाविष्ट है और इस प्रकार दोनों के लिए काव्य का प्रयोजन आनंद प्राप्ति है। मम्मट ने समस्त प्रयोजनों का शीर्षस्थ आनंद को ही माना है। साथ ही सामान्य प्रयोजनों का भी उल्लेख किया है। मम्मट के अनुसार-


'काव्यं यशसेवेकृते व्यवहारविदे शिवेतरस्क्षतये ।

 सद्यः परनिवृते कांतासम्मिततयोपदेशयुजे ।'


आचार्य मम्मट ने काव्य के जिन प्रयोजनों का उल्लेख किया है उसमें कवि और पाठक दोनों के प्रयोजनों को प्राथमिकता के आधार पर प्रस्तुत किया। उक्त श्लोक के आधार पर काव्य के छः प्रयोजन है-यश की प्राप्ति, अर्थ लाभ व्यवहार का ज्ञान, अमंगल का नाश, तत्काल परम आनन्द की प्राप्ति और कान्तासम्मित सरस उपदेश ।

कविता का प्रयोजन कवि को यश दिलाना है। कवि को कविता से धन की प्राप्ति भी होती है। जीवनानुभवों को रचना में उतारकर कवि बड़ा बनता है । कविता से अमंगल का नाश होता है, हनुमान चालीसा, दुर्गा सप्तशती, रामचरितमानस आदि इसके उदाहरण हैं। सद्यः परनिर्वृतये अर्थात् तत्काल दुख का नाश और आनंद की प्राप्ति कान्तासम्मित उपदेश-कविता मित्तभाषिणी स्त्री की तरह लोकहितकारी उपेदश देती है। परवर्ती काव्यशास्त्रियों में मम्मट ने काव्य प्रयोजन सम्बन्धी परम्परा को स्थिरता प्रदान की। उन्होंने काव्य के प्रयोजनों को यश, अर्थ, प्राप्ति, व्यवहार ज्ञान, शिवेतर रक्षा, कान्तासम्मित उपदेश एवं सद्यः परिनिवृत्ति में अन्तर्भुत्व करनेका प्रयास किया है।.


भोजराज ने काव्य प्रयोजन के विषय में लिखा है-


'निर्दोषं गुणवकाव्यमलंकाररैरलंकृतम । 

रसान्चितं कविः कुर्वन कीर्ति प्रीतिंचविंदति।।'


भोज ने भी वामन की भाँति कीर्ति और प्रीति को काव्य का प्रयोजन माना है।

यदि इन सभी प्रयोजनों का वर्गीकरण करें तो संस्कृत आचार्यों की विस्तृत काव्य दृष्टि का प्रमाण मिलता है। सभी संस्कृत आचार्यों के मतों का समन्वय दो काव्य प्रयोजनों में किया जा सकता है-शिक्षा या लोकमंगल या रस प्रीति या आनंद। भारतीय दृष्टि में समाज के संरक्षण का मूलाधार धर्म एवं नैतिक सादाचरण है। इस तत्त्व को ध्यान में रखकर सामाजिक प्रयोजन एक निश्चित लक्ष्य की पूर्ति में सहायक है। भारतीय काव्यशास्त्र में कवि और सहृदय दोनों की दृष्टि से काव्य प्रयोजनों पर चिंतन किया गया है। भिखारीदास ने पुरुषार्थ चतुष्टय को काव्य के प्रयोजन माना। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने उपदेश को ही काव्य का प्रयोजन स्वीकार किया है। शुक्ल जी ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात कही है। उनके अनुसार पूर्ण कवि वही होता है जो साधनावस्था पर चलता है। 

     मैथिलीशरण गुप्त ने काव्य के उद्देश्य की ओर संकेत करते हुए कहा है-

'केवल मनोरंजन न कवि का, कर्म होना चाहिए, 

उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए।'


डॉ. नगेन्द्र ने आत्माभिव्यक्ति को आचार्य नन्दुलारे वाजपेयी ने आत्मानुभूति को काव्य का प्रयोजन माना है। डॉ. श्यामसुन्दर दास ने माना है कि कवि की दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति तथा सामाजिक की दृष्टि से शिक्षा और आनंद ही काव्य के प्रयोजन है। इस प्रकार हिन्दी के विभिन्न विद्वानों ने काव्य प्रयोजन के रूप में मानव और समाज में सामंजस्य को महत्व दिया है। अर्थात् मनुष्य और समाज में सही तालमेल काव्य निर्माण में सहयोग करता है। तुलसीकृत रामचरितमानस स्वातः सुखाय रची गई किन्तु रीतिकाल और आधुनिक काल में काव्य रचना का उद्देश्य अर्थ प्राप्ति ही रहा है। तुलसीदास कृत 'हनुमान बाहुल' की रचना बाहु-पीड़ा से मुक्ति-प्राप्ति के उद्देश्य से हुई, अतः अमंगल निवारण भी एक समय काव्य का प्रयोजन रहा। लोककल्याणकारी भावना भी काव्य रचना हेतु प्रमुख प्रयोजन होताहै। 'रामचरितमानस' लोकमंगलकारी होने के कारण ही आज भी भारतीयों का कंठहार है। पहले के कवि जो अपने राजा के आश्रय में रहते थे वे भी उन्हें समय-समय पर राजधर्म की सीख देते नजर आते हैं जैसे बिहारी-सरीखे कवियों ने अपने नीतिपरक दोहों से अपने समय के राजाओं को राजधर्म का पालन करने की प्रेरणा दी।


पाश्चात्य चिंतकों रचनाकारों में प्लेटो ने लोकमंगल को काव्य का चरम प्रयोजन स्वीकार किया। 

रस्किन के अनुसार काव्य का ध्येय है-अधिक से अधिक जन समुदाय की अधिक से अधिक हित साधना।

 ड्राइडन के अनुसार काव्य का प्रयोजन है मधुर रीति से शिक्षा देना। 

कौलरिज के अनुसार 'आनंद की प्राप्ति' काव्य प्रयोजन है।

 वर्डस्वर्थ के अनुसार काव्य का उद्देश्य है सत्य और सौन्दर्य के माध्यम से आनंद प्रदान करना। 

मैथ्यू अर्नाल्ड के अनुसार काव्य का लक्ष्य है नैतिकता का प्रतिष्ठान। 

भारतीय एवं पाश्चात्य विद्वानों द्वारा बताए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष नीति, उपदेश, लोकमंगल, आह्लाद और आनंद सभी को किसी-न-किसी रूप में काव्य रचना के उद्देश्य के रूप में देखा जा सकता है। संस्कृत आचार्य वामन, रूद्रट, अभिनवगुप्त ने कीर्ति, प्रीति, लोकोत्तर चमत्कार, आह्लाद और आनन्द को काव्य का प्रयोजन बताया वहीं पश्चिम आलोचक शिलर ने आह्लाद को समस्त कलाओं का लक्ष्य माना। कौलरिज और होरेस ने आनंद और आह्लाद को काव्य का प्रमुख प्रयोजन स्वीकार किया। डाईइन न का 'मधुर रीति से शिक्षा' का प्रयोजन मम्मट के 'कान्तासम्मित उपदेश' से मेल खाता है। भरतमुनि का 'लोकोपदेश' पश्चिम विद्वान प्लेटो, रस्किन और टॉलस्टॉय के 'लोकमंगल' के प्रयोजन का ही समर्थन है।


सारांशः यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाए तो भावानुभूति की अभिव्यक्ति ही रचनाकार की दृष्टि से काव्य का सर्वोपरि प्रयोजन है और तीव्र अनुभूतियों का परिष्कार या उनसे एकाकार हो जाने की प्रवृत्ति ही पाठक श्रोता और दर्शक की दृष्टि से काव्य का मूल प्रयोजन है।

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