काव्य हेतु

भारतीय आचार्य द्वारा निरूपित काव्य हेतु पर प्रकाश डालिए

                काव्य हेतु          

कवि में काव्य निर्माण की सामर्थ्य उत्पन्न करने वाले साधनों को 'काव्य हेतु' अथवा काव्य के कारण कहा जाता है। दूसरे शब्दों में काव्य रचना के पीछे कौन से कारण काम करते हैं? किन कारणों से काव्य रचना संभव हो पाती है इन सभी प्रश्नों की चर्चा काव्य हेतु के अंतर्गत की जाती है।

                       संस्कृत काव्य शास्त्रीयों में जिन्होंने काव्य हेतुओं का निरूपण किया है इनमें आचार्य दण्डी, वामन भामह, मम्मट, रूद्रट, कुतक, राजशेखर आदि उल्लेखनीय है। इन सभी ने तीन हेतुओं- प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास का विश्लेषण किया है। भारतीय काव्यशास्त्र में दो विचारधाराएँ रही हैं। एक में प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के संघटन को काव्य सृजन का हेतु माना गया है तो दूसरी विचारधारा में केवल प्रतिभा को उसका हेतु स्वीकार किया गया है। आचार्यों का यह समूह मानता है कि प्रतिभा ही काव्य का मूल हेतु है और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास उसके सहायक मात्र हैं।



             भामह ने काव्य हेतु के रूप में केवल प्रतिभा का उल्लेख किया है, उनके अनुसार जिसमें प्रतिभा है वही काव्य रचना कर सकता है। आचार्य भामह ने प्रतिभा को काव्य रचना का प्रधान हेतु मानते हुए लिखा है:

          "गुरुपदेशादध्येतु शास्त्रं जडधियोप्मलम ।

         काव्य तु जायते जातुकस्यचित प्रतिभावतः ।।"

अर्थात् गुरु के उपदेश से तो जड़बुद्धि भी शास्त्र अध्ययन कर सकता है पर काव्य रचना की कला प्राप्त नहीं का जा सकती। काव्य किसी प्रतिभाशाली में ही स्फूरित होता है। आचार्य भामह केवल प्रतिभा को ही काव्य का मेल नहीं मानते हैं अपितु वे प्रतिभा को काव्य का मुख्य हेतु मानते हुए व्युत्पत्ति और अभ्यास की भूमिका को भी स्वीकार करते हैं।

                   इस प्रकार भामह के अनुसार पूर्ण तथा अच्छे काव्य की रचना हेतु व्याकरण, छंद शास्त्र, कोश, अर्थशास्त्र, इतिहास, लोकव्यवहार, तर्कशास्त्र तथा विभिन्न कलाओं का अध्ययन-मनन आवश्यक है। अर्थात् काव्य सृजन के लिए प्रतिभा, बहुज्ञता (शास्त्र ज्ञान और निपुणता ) एवं अभ्यास आवश्यक है।

          वामन के अनुसार 'लोक, विद्या और प्रकीर्ण काव्यांग होते हैं। आचार्य वामन ने काव्य हेतु के स्थान पर काव्यांग शब्द का प्रयोग किया है तो भामह ने काव्य हेतु के रूप में केवल प्रतिभा का उल्लेख किया है। तर्कशास्त्र में कारणों के मुख्य रूप से तीन भेद माने गए हैं-प्रेरक कारण, निमित्त कारण तथा उपादान कारण। प्रेरक कारण वे मुख्य अथवा अनिवार्य कारण हैं जिनकी सत्ता में काव्य रचना होती है, निमित्त कारण वे हैं, जिनकी सहायता के बिना काव्य रचना हो ही नहीं सकती और जो काव्य की सफलता के निमित्त हैं। उपादान कारण का संबंध मूल प्रयोजन से है।

परवर्ती आचार्यों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को ही काव्य-कारण माना। राजशेखर ने समाधि एवं अभ्यास से उत्पन्न 'शक्ति' को ही काव्य का एकमात्र कारण माना है और उसे प्रतिभा तथा व्युत्पत्ति से बहुत दूर बताते हैं। राजशेखर के अनुसार शक्ति ही प्रतिभा और व्युत्पत्ति को जन्म देती है।

              राजशेखर ने काव्य हेतुओं की चर्चा करते हुए सर्वप्रथम शक्ति और प्रतिभा को पर्याय न मानकर दो पृथक तत्वों के रूप में ग्रहण किया है। उनके अनुसार शक्ति संपन्न ही प्रतिभाशाली और व्युत्पन्न होता है। राजशेखर ने प्रतिभा के दो भेद माने हैं- 1. कारयित्री प्रतिभा और 2. भावयित्री प्रतिभा । कारयित्री प्रतिभा को वे काव्य के लिए उपकारक मानकर उसके पुनः तीन भेद करते हैं-

      * सहजा- पूर्वजन्म के संस्कारों से युक्त प्रतिभा

      * आहार्या- इस जन्म के संस्कारों से उत्पन्न प्रतिभा

  *  औपदेशिकी- तंत्र, मंत्र देवता गुः आदि के उपदेश से उत्पन्न।


इस प्रकार राजशेखर के अनुसार काव्य का मूल हेतु शक्ति है जिससे प्रतिभा और व्युत्पत्ति की प्राप्ति होती है।

     दण्डी ने काव्य हेतुओं की चर्चा करते हुए कहा है-

           "नासार्गिकी च प्रतिभा श्रुतंच बहु निर्मलम् ।

           अमन्दश्चाभियोगोस्याः कारणं काव्यसम्पदः॥"


दण्डी ने केवल प्रतिभा की अपरिहार्यता को स्वीकृति नहीं दी, तीनों के समन्वित रूप को काव्य का कारण कहा। अर्थात् दण्डी ने प्रतिभा, अध्ययन और अभ्यास को सम्मिलित में कांव्य रचना का हेतु माना। दण्डी की उपरोक्त उक्ति का अर्थ है-पूर्व जन्म के संस्कारों से संपन्न ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक प्रतिभा विविध ज्ञान से युक्त होकर काव्य सम्पदा के कारण बनते हैं। उनकी धारणा है कि प्रतिभा न भी हो तो अध्ययन और श्रम से वाणी का वरदान पाया जा सकता है और काव्य रचना की जा सकती है। काव्य प्रतिभा के अभाव में भी बहुज्ञता और अभ्यास से काव्य सृजन संभव है।


"न विद्यते यद्यपि पूर्ववासना गुणानुबन्धि प्रतिभानमद्भुतम् श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता धुवं करोत्येव कमाप्यनुग्रहम्॥"


यदि प्रतिभा न भी हो तो व्युत्पत्ति एवं अभ्यास से कवि कर्म चल सकता है। प्रायः सभी आचार्यों ने प्रतिभा को सहज तथा काव्य का प्रधान हेतु माना है। रूद्रट अवश्य इसके अपवाद हैं उन्होंने प्रतिभा को उत्पाद्य भी माना है। 

रूद्रट ने प्रतिभा के दो भेद किए हैं-सहजा और उत्पाद्या। सहजा अर्थात् जन्मजात् प्रतिभा और उत्पाद्या अर्थात् श्रमजात प्रतिभा। उत्पाद्या को सहजा का परिष्कार करने वाली घोषित किया है। रूद्रट के अनुसार काव्य का मूल हेतु सहजा प्रतिभा है। व्युत्पत्ति और अभ्यास उसके संस्कारक है। उन्होंने काव्य हेतुओं में शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास की चर्चा की है। शक्ति से उनका अभिप्राय प्रतिभा से है। उनकी मान्यता है कि प्रतिभा से ही नये-नये अर्थ शब्दबद्ध होकर कवि के मन में उपस्थित होते हैं। व्युत्पत्ति से कवि सार तत्व ग्रहण करता है और अभ्यास से प्रतिभा में उत्कर्ष जाता है-


"तस्यासारनिरासात्सारग्रहणाच्च चारुणः करणे।

त्रितयमिंद व्याप्रियते शक्तिव्युत्पन्तिरभ्यासः॥"


वामन ने सर्वाधिक महत्व व्युत्पत्ति को और दूसरा स्थान अभ्यास को दिया है। प्रतिभा की चर्चा प्रकीर्ण के अंतगर्त गौण रूप से हुई है। आचार्य वामन ने इस संबंध में विस्तृत चर्चा की है। उन्होंने काव्य कारण के रूप में रचनाकार के लिए लोकजीवन और विभिन्न शास्त्रों के अध्ययन मनन पर विशेष बल दिया है-

"लोको विद्या प्रकीर्ण च काव्याडू.गानि"


वामन ने काव्य के तीन प्रकार के हेतु माने हैं- वे लोक को व्यवहार ज्ञान, विद्या को शास्त्र ज्ञान, प्रकीर्ण को लक्ष्यज्ञत्व, अभियोग व वृद्धसेवा के अन्तर्गत स्थान देते हैं। इनके अलावा उन्होंने अवक्षेप को रचना में अधिकाधिक सही शब्द चयन का अभ्यास प्रतिभान को नैसर्गिक प्रतिभा और अवधान को चित्त की एकाग्रता के रूप में स्वीकार करते हैं।

          मम्मट के अनुसार कवित्व निर्माण के बीज रूप विशिष्ट संस्कार को शक्ति‌ कहते हैं- "शक्ति कवित्व-बीजरूपः संस्कार विशेषः ।"


उन्होंने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों के समन्वित रूप को काव्य का हेतु माना है। मम्मट ने उक्त सभी काव्य काव्य हेतुओं को तीन निम्नोक्त वर्गों में बाँट दिया-


शक्तिनिपुणता लोकशास्त्र काव्याद्यवेक्षणात् । काव्यशिक्ष्याभ्यास इति हेतुस्तद्द भवे।"


अर्थात् शक्ति से अभिप्राय प्रतिभा, लोक काव्यशास्त्र आदि के अध्ययन,‌ निरीक्षण द्वारा प्राप्त निपुणता और काव्य के मर्मज्ञ व्यक्तियों से प्राप्त शिक्षा इन तीनों में से कोई भी एक काव्य रचना के लिए पर्याप्त नहीं है। तीनों में से किसी एक का अभाव भी काव्य रचना को अप्रौढ़ बनाता है। अतः मम्मट ने शक्ति,       व्युत्पत्ति , अभ्यास इन तीनों के समन्वित रूप को काव्य का हेतु माना।

आनंदवर्धन  की शक्ति और प्रतिभा को काव्य का मुख्य हेतु माना है। व्युत्पत्ति भी काव्य का एक हेतु है पर उसके अभाव में भी प्रतिभा के द्वारा अच्छे काव्य की रचना की जा सकती है-


"न काव्यार्थ विरामो अस्ति यदि स्यात् प्रतिभागुणः । सत्स्वपि पुरातनकविप्रबन्धेषु यदि स्यात् प्रतिभागुणः"


अर्थात् “यदि कवि में प्रतिभा है तो उसे वर्ण्य विषयों की कमी नहीं है। वह पुरातन, वर्णित विषयों को भी उठाकर उनमें नूतनता की सृष्टि कर सकता है और प्रतिभाहीन के लिए कवि कर्म में कुछ नहीं रखा है।

भट्टतोत ने प्रतिभा की व्याख्या इन शब्दों में की है-

"प्रज्ञा नव-नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।"


अर्थात् नये-नये अर्थों का उद्घाटन करने वाली प्रज्ञा प्रतिभा कहलाती है।

आचार्य हेमचन्द्र ने प्रतिभा को काव्य का मूल हेतु तथा व्युत्पत्ति और अभ्यास को परिष्कारक माना। जयदेव ने भी काव्य सृष्टि का मूल हेतु प्रतिभा को माना है। व्युत्पत्ति और अभ्यास उसके सहायक हैं।

काव्यशास्त्र के आचार्यों ने उक्त सभी अवधारणाओं में प्रतिभा को ही काव्य का मूल हेतु और व्युत्पत्ति तथा अभ्यास को उसके परिष्कारक या संस्कारक घोपित किया। सभी आचार्यों ने किसी न किसी रूप में प्रतिभा को परिभाषित किया है।

पण्डित जगन्नाथ के अनुसार-

'सा काव्यघटनानुकूलशब्दार्थों परिस्थितिः ।'


अर्थात् काव्य रचना के अनुकूल शब्द तथा अर्थ को प्रस्तुत करने की क्षमता को प्रतिभा कहते हैं। काव्य पंडित राजजगन्नाथ ने भी केवल प्रतिभा को ही काव्य रचना का हेतु मानकर व्युत्पत्ति अभ्यास को प्रतिभा के परिष्कारक ही माना। 

हेमचन्द्र तथा जगन्नाथ ने भट्टतौत की ऊपर उद्धृत व्याख्या का समर्थन किया है।

 काव्य सृजन के उक्त तीन हेतुओं प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास के सापेक्ष महत्व को सभी संस्कृत काव्य शास्त्रीयों ने स्वीकारा है किन्तु काव्य के अनिवार्य हेतु के रूप में प्रतिभा को स्वीकार किया गया है। व्युत्पत्ति, अभ्यास को परिष्कार, संस्कारक हेतु के रूप में।


व्युत्पत्तिः व्युत्पत्ति काव्य का मूल हेतु नहीं अपितु प्रतिभा का परिष्कारक हेतु है। व्युत्पत्ति उस निपुणता को कहते हैं जो विभिन्न काव्यों तथा शास्त्रों के अध्ययन, अध्यापन, अथवा लोक व्यवहार द्वारा उत्पन्न होती है। व्युत्पत्ति का अभिप्राय ज्ञान होता है अर्थात् व्युत्पत्ति अर्जित ज्ञान का सामर्थ्य है। शास्त्र ज्ञान आदि के ज्ञान के अभाव में प्रज्ञा मलिन रहती है।

काव्य रचना में व्युत्पत्ति या निपुणता का भी अपना महत्व है। काव्य का उत्कर्ष उसकी प्रतिभा के समान उसकी व्युत्पत्ति पर भी निर्भर करता है। व्युत्पत्ति दो प्रकार की होती है, लौकिक तथा शास्त्रीय। लौकिक व्युत्पत्ति की प्राप्ति निरीक्षण के द्वारा होती है तथा शास्त्रीय व्युत्पत्ति की प्राप्ति अध्ययन से होती है। 

जहाँ एक ओर वामन शास्त्र ज्ञान को अधिक श्रेष्ठ बताते हैं वहीं दूसरी ओर राजशेखर ने 'बहुलता' पर बल दिया है।

       वामन ने काव्य को एक शरीर की उपमा देते हुए कहा है कि काव्य शरीर का निर्माण शब्द स्मृति, अभिधान, छंदशास्त्र, चित्रकला, कामशास्त्र एवं दण्ड नीति से होता है इसके बिना काव्य रचना संभव नहीं है। जिस रचनाकार को लोक का जितना गंभीर ज्ञान होगा वह उतनी ही सच्ची कविता लिखने में समर्थ होगा। प्रतिभा को वे प्रकीर्ण में रख देते हैं।

       राजशेखर व्युत्पत्ति को बहुलता बताते हुए कहते हैं:-

             "उचितानुचित विवेको व्युत्पत्तिः'


राजशेखर के अनुसार व्युत्पत्ति का अभिप्राय शास्त्र ज्ञान की सिद्धि से उचित-अनुचित के प्रति विवेक है।

          प्रतिभा और व्युत्पत्ति के साथ अभ्यास से काव्य रचना पूर्ण होती है। रूद्रट के अनुसार व्युत्पत्ति सर्वज्ञता है और काव्य का उत्कर्ष उसकी प्रतिभा के समान उसकी व्युत्पत्ति पर भी निर्भर करता है। इसके द्वारा सहजा प्रतिभा परिपुष्ट, परिष्कृत प्रखर, चमत्कृत, मर्म-स्पर्शिनी, शक्ति सम्पन्न और सारगृहिणी हो उठती है।


मम्मट, निपुणता शब्द का प्रयोग करते हुए इसका अर्थ लोकजीवन का परिचय, शास्त्र ज्ञान, पूर्ववती श्रेष्ठ काव्यों से परिचय, प्रशिक्षण आदि को मानते हैं। 

अभ्यास-काव्य रचना में रचनाकार के निरंतर अभ्यास से रचना का परिष्कार होता है। अभ्यास से ही रचना प्रौढ़ और परिष्कृत होती है। प्रतिभावान रचनाकार निरंतर अभ्यास, तप, योग से प्रतिभा को तपाता है उसे निखारता-संवारता है। काव्य रचना में रचनाकार के निरंतर साधना, तप, योग सामधि से निखार आता है। अभ्यास के लिए भी राजशेखर, दण्डी, मम्मट आदि विद्वानों ने अपने मत बताए हैं।

 राजेशखर के अनुसार निरंतर प्रयास करते रहने को अभ्यास कहते हैं। आचार्य दण्डी और वामन प्रतिभा व्युत्पन्नता को स्वीकार करते हुए भी अभ्यास के महत्व को स्वीकार करते हैं। मम्मट महानुभावों के संसर्ग से प्राप्त शिक्षा को अभ्यास मानते हैं तथा दण्डी शास्त्र के निरंतर अभ्यास से सरस्वती के प्रसन्न होने की बात कहते हैं।

काव्य हेतु चिंतन में श्रीपति, जगन्नाथ प्रसाद 'मानु' सोमनाथ, प्रतापसाही आदि हिन्दी साहित्यकारों पर भी संस्कृत चिंतन का प्रभाव देखने को मिलता है। श्रीपति, शक्ति, निपुणता और अभ्यास को काव्य रचना के तीन हेतु मानते हैं। श्रीपति के अनुसार प्रतिभा के अभाव में काव्य रचना संभव नहीं है, प्रतिभा मनुष्य को उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार ही प्राप्त होती है। प्रतापसाही ने काव्य हेतु के रूप में शक्ति (प्रतिभा), निपुणता तथा अभ्यास को स्वीकृति देते हुए सर्वाधिक महत्व प्रतिभा को ही दिया है। जगन्नाथ प्रसाद 'मानु' के अनुसार प्रतिभा पूर्व संस्कार है, व्युत्पत्ति लोक ज्ञान है और अभ्यास निरंतर श्रम। उन्होंने अपनी पुस्तक 'काव्य प्रभाकर' के 'काव्य कारण प्रसंग' में प्रतिभा, व्युत्पत्ति, अभ्यास की चर्चा की है। उनके अनुसार प्रतिभा पूर्व संस्कार है, व्युत्पत्ति लोक ज्ञान है और अभ्यास निरंतर श्रम । उन्होंने काव्य सृजन के लिए इन तीनों ही हेतुओं को आवश्यक माना है, इसके साथ ही सोमनाथ ने अभ्यास, श्रवण और गुरु कृपा को काव्य का हेतु माना है।


पाश्चात्य चिंतकों ने भी काव्य हेतुओं को अपने अनुसार आवश्यक माना है। प्लेटो ने प्रतिभा, काव्य संबंधी आवश्यक नियमों का ज्ञान एवं अभ्यास इन तीन बातों को अनिवार्य माना है। अरस्तु ने जीवन की पुनर्रचना, पुनः सृजन, पुनः उत्पादन, नव निर्मिति आदि को अनुकरण के अर्थ के अन्तर्गत माना है। होरेस के अनुसार नवीन रचनाकारों को प्राचीन कृतियों का अध्ययन, मनन, चिंतन करना चाहिए वे अनुकरण को काव्य का हेतु मानते हैं। 

टी.एस. इलियट मस्तिष्क की प्रौढ़ता को व्युत्पत्ति शील की प्रौढ़ता को प्रतिभा, भाषा और सामान्य शैली की प्रौढ़ता को अभ्यास मानते हैं। बेनजोनसन ने प्रतिभा, अभ्यास, श्रेष्ठ कवियों के अनुकरण एवं व्यापक अध्ययन को काव्य हेतु माना है। 

समग्रतः अभ्यास के अभाव में प्रतिभा कुंठित हो जाती है। अभ्यास कवि-कर्म में कुशलता लाता है रामचरित मानस, कामायनी, उर्वशी इत्यादि इसका स्पष्ट प्रमाण हैं। संस्कृत आचार्यों ने प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास को काव्य के हेतु माना है। मम्मट 'निपुणता' को आवश्यक मानते हैं इस प्रकार विभिन्न काव्य हेतुओं के माध्यम से कवि-साधना सफल हो पाती है।

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