आचार्य रामचंद्र शुक्ल निर्गुण धारा 'ज्ञानाश्रयी शाखा' नोट्स

 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत हिंदी साहित्य के इतिहास से



प्रकरण-2 (निर्गुण धारा-ज्ञानाश्रयी शाखा)


• इस प्रकरण में ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवियों का वर्णन किया गया है। कवियों को इस क्रम में रखा गया है- कबीर, रैदास (रविदास), धर्मदास, गुरु नानक, दादूदयाल, सुंदरदास, मलूकदास, अक्षर अनन्य।

 • शुक्ल जी ने एक बात स्पष्ट की है- "निर्गुणपंथ के संतों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखनी चाहिये कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है। उन पर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि का आरोप करके वर्गीकरण करना दार्शनिक पद्धति की अनभिज्ञता प्रकट करेगा। उनमें जो थोड़ा-बहुत भेद दिखाई पड़ेगा, वह उन अवयवों की न्यूनता या अधिकता के कारण जिनका मेल करके निर्गुण पंथ चला है।"


कबीर


• "रामानुज की शिष्य परंपरा में होते हुए भी रामानंद जी भक्ति का एक अलग उदार मार्ग निकाल रहे थे जिसमें जाति-पाँति का भेद और खान-पान का आचार दूर कर दिया गया था। अतः इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर को 'राम-नाम' रामानंद जी से ही प्राप्त हुआ। पर आगे चलकर कबीर के 'राम' रामानंद के 'राम' से भिन्न हो गए।" 

• "इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथ पंथियों के प्रभाव से प्रेमभाव और भक्ति रस से शून्य शुष्क पड़ता जा रहा था।"

• "कबीर ने दूर-दूर तक देशाटन किया, हठयोगियों तथा सूफी मुसलमान फकीरों का भी सत्संग किया। अतः उनकी प्रवृत्ति निर्गुण उपासना की ओर दृढ़ हुई।"

• "जो ब्रह्म हिंदुओं की विचारपद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का भी विषय बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियो की साधना का समर्थन किया। "


• "उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद, हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवन के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया।" 

• "यद्यपि कबीर की बानी 'निर्गुण बानी' कहलाती है, पर उपासना क्षेत्र में ब्रह्म निर्गुण नहीं बना रह सकता। सेव्य-सेवक भाव में, स्वामी में कृपा, क्षमा, औदार्य आदि गुणों का आरोप हो ही जाता है।"

• "कबीर के यहाँ निरुपाधि ब्रह्म (निर्गुण), सोपाधि ईश्वर (सगुण) व सर्ववाद का निरूपण मिलता है।"

• "कबीर में ज्ञानमार्ग की जहाँ तक बातें हैं वे सब हिंदू शास्त्रों की हैं जिनका संचय उन्होंने रामानंद जी के उपदेशों से किया।"

• "माया, जीव, ब्रह्म, तत्त्वमसि, आठ मैथुन (अष्टमैथुन), त्रिकुटी, छः रिपु इत्यादि शब्दों का परिचय उन्हें अध्ययन द्वारा नहीं, सत्संग द्वारा ही हुआ, क्योंकि वे, जैसा कि प्रसिद्ध है, कुछ पढ़े-लिखे न थे।"

 • "उपासना के बाह्य स्वरूप पर आग्रह करने वाले और कर्मकांड को प्रधानता देने वाले पडितों और मुल्लों दोनों को उन्होंने खरी-खरी सुनाई और राम-रहीम की एकता समझ कर हृदय को शुद्ध और प्रेममय करने का उपदेश दिया।"


• "देशाचार और उपासनाविधि के कारण मनुष्य-मनुष्य में जो भेदभाव उत्पन्न हो जाता है उसे दूर करने का प्रयास उनकी वाणी बराबर करती रही। यद्यपि वे पढ़े-लिखे न थे पर उनकी प्रतिभा बड़ी प्रखर थी जिससे उनके मुँह से बड़ी चुटीली और व्यंग्य-चमत्कारपूर्ण बातें निकलती थीं। उनकी उक्तियों में विरोध और असंभव का चमत्कार लोगों को बहुत आकर्षित करता था।"

• "अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा ही इन्होंने ज्ञान की बातें कही हैं जो नई न होने पर भी वाग्वैचित्र्य के कारण अनपढ़ लोगों को चकित किया करती थीं।"

• "अनूठी अन्योक्तियों द्वारा ईश्वर प्रेम की व्यंजना सूफियों में बहुत प्रचलित थी। जिस प्रकार कुछ वैष्णवन में 'माधुर्य' भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियों में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी प्रियतम या माशूक मानकर हृदय से उद्गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया।" 

• "कबीर अपने श्रोताओं पर यह अच्छी तरह भासित करना चाहते थे कि हमने ब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, इसी से वे प्रभाव डालने के लिये बड़ी लंबी-चौड़ी गर्वोक्तियाँ भी कभी-कभी कहते थे।"

 • "भाषा बहुत परिष्कृत और परिमार्जित न होने पर भी कबीर की उक्तियों में कहीं-कहीं विलक्षण प्रभाव और चमत्कार है। प्रतिभा उनमें बड़ी प्रखर थी इसमें संदेह नहीं।"


प्रकरण 1 "इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथपंथियों के प्रभाव से सुबह में प्रेमभाव और भक्ति रस से शून्य और शुष्क पड़ता जा रहा था। उनके द्वारा यह बहुत ही आवश्यक कार्य हुआ। इसके साथ ही मनुष्यत्व की सामान्य भावना को आगे करके निम्न श्रेणी की जनता में उन्होंने आत्मगौरव का भाव जगाया और भक्ति के ऊँचे-से-ऊँचे सोपान की ओर बढ़ने के लिये बढ़ावा दिया।"


• प्रकरण । "कबीरदास ने नाथपंथी जोगियों की कई बातें ग्रहण की जैसे- नाथपंथी ने 'भेदभाव को निर्विष्ट करने वाले उपासना और बाहरी विधानों को अलग रखकर अंतस्साधना' पर जोर दिया। लेकिन नाथपंथी ने 'हृदयपक्षशून्य सामान्य अंतस्साधना' का मार्ग अपनाया, पर कबीर ने इसे नहीं स्वीकारा। नाथपंथ व निर्गुणपंथ में यह मुख्य अंतर है। कबीर व निर्गुणपंथियों ने अंतस्साधना में रागात्मिका 'भक्ति' और 'ज्ञान' का योग किया।


• प्रकरण 1 "कबीर ने जिस प्रकार एक निराकार ईश्वर के लिये 'भारतीय वेदांत' का पल्ला पकड़ा उसी प्रकार उस निराकार ईश्वर की भक्ति के लिये सूफियों का प्रेमतत्त्व लिया और अपना 'निर्गुण' धूमधाम से निकाला।"


• प्रकरण 1 "इन्होंने एक ओर तो स्वामी रामानंद जी के शिष्य होकर भारतीय अद्वैतवाद की कुछ स्थूल बातें ग्रहण कीं और दूसरी ओर योगियों और सूफी फकीरों के संस्कार प्राप्त किये। वैष्णवन से उन्होंने अहिंसावाद और प्रपत्तिवाद लिये। इसी से उनके तथा 'निर्गुणवाद' वाले दूसरे संतों के वचनों में कहीं भारतीय अद्वैतवाद की झलक मिलती है, तो कहीं योगियों के नाड़ीचक्र की, कहीं सूफियों के प्रेमतत्व की, कहीं पैगंबरी कट्टर खुदावाद की और कहीं अहिंसावाद की।"


• "तात्त्विकता से न तो हम इन्हें पूरे अद्वैतवादी कह सकते हैं और न एकेश्वरवादी। दोनों का मिला-जुला भाव इनकी बानी में मिलता है। इनका लक्ष्य एक ऐसी सामान्य भक्ति पद्धति का प्रचार था जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों योग दे सकें और भेदभाव का कुछ परिहार हो।"

 • प्रकरण 3 "कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों के कट्टरपन को दूर करने का जो प्रयास किया वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य-मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदयाभास का अनुभव मनुष्य कभी-कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई।"


   रैदास या रविदास


• "रैदास का अपना अलग प्रभाव पछाँह की ओर जान पड़ता है। 'साधो' का एक संप्रदाय, जो फर्रुखाबाद और थोड़ा बहुत मिर्जापुर में भी पाया जाता है, रैदास की ही परंपरा में कहा जा सकता है।" 

• "रैदास की भक्ति भी निर्गुण ढाँचे की जान पड़ती है। कहीं तो वे अपने भगवान को सबमें व्यापक देखते हैं, कहीं कबीर की तरह परात्पर की ओर संकेत करते हैं।"


धर्मदास


• "कबीर के मुख से मूर्तिपूजा, तीर्थाटन, देवार्चन आदि का खंडन सुनकर इनका झुकाव 'निर्गुण संत मत' की ओर हुआ। अंत में ये कबीर से सत्यनाम की दीक्षा लेकर उनके प्रधान शिष्यों में हो गए और संवत् 1575 में कबीरदास के परलोकवास पर उनकी गद्दी इन्हीं को मिली।"


• "इनकी रचना थोड़ी होने पर भी कबीर को अपेक्षा अधिक सरल भाव लिये हुए है; उसमें कठोरता और कर्कशता नहीं है। इन्होंने पूरबी भाषा का ही व्यवहार किया है। इनकी अन्योक्तियों के व्यंजक चित्र अधिक मार्मिक हैं क्योंकि इन्होंने खंडन-मंडन से विशेष प्रयोजन न रख प्रेमतत्व को ही लेकर अपनी वाणी का प्रसार किया है।"


गुरु नानक


• "गुरु नानक आरंभ से ही भक्त थे अतः उनका ऐसे मत की ओर आकर्षित होना स्वाभाविक था, जिसकी उपासना का स्वरूप हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को समान रूप से ग्राह्य हो। उन्होंने घर-बार छोड़ बहुत दूर-दूर के देशों में भ्रमण किया जिससे उपासना का सामान्य स्वरूप स्थिर करने में उन्हें बड़ी सहायता मिली। अंत में कबीरदास की निर्गुण उपासना का प्रचार उन्होंने पंजाब में आरंभ किया और वे सिख संप्रदाय के आदि गुरु हुए।"

• "भक्ति या विनय के सीधे-सादे भाव सीधी-सादी भाषा में कहे गए हैं, कबीर के समान अशिक्षितों पर प्रभाव डालने के लिये टेढ़े-मेढ़े रूपकों में नहीं। इससे इनकी प्रकृति की सरलता और अहंभावशून्यता का परिचय मिलता है।"


दादूदयाल


• "इनकी रचना में अरबी-फारसी के शब्द अधिक आए हैं और प्रेमतत्त्व की व्यंजना अधिक है। घट के भीतर के रहस्य-प्रदर्शन की प्रवृत्ति इनमें बहुत कम है। दादू की बानी में यद्यपि उक्तियों का वह चमत्कार नहीं है जो कबीर की बानी में मिलता है, पर प्रेम भाव का निरूपण अधिक सरस और गंभीर है।"

• "कबीर के समान खंडन और वाद-विवाद में इन्हें रुचि न थी।"


सुंदरदास


• "निर्गुणपंथियों में ये ही एक ऐसे व्यक्ति हुए हैं, जिन्हें समुचित शिक्षा मिली थी और जो काव्यकला की रीति आदि से अच्छी तरह परिचित थे। अतः इनकी रचना साहित्यिक और सरस है। भाषा भी काव्य की मँजी हुई ब्रजभाषा है।"

• "भक्ति और ज्ञानचर्चा के अतिरिक्त नीति और देशाचार आदि पर भी इन्होंने बड़े सुंदर पद्य कहे हैं।"

• "इनकी रचना काव्यपद्धति के अनुसार होने के कारण और संतों की रचना से भिन्न दिखाई पड़ती है। संत तो ये थे ही पर कवि भी थे।"


• "सुशिक्षा द्वारा विस्तृत दृष्टि प्राप्त होने से इन्होंने और निर्गुणवादियों के समान लोकधर्म की उपेक्षा नहीं की है।...इन्होंने जो सृष्टित्तत्त्व आदि कहे हैं वे भी औरों के समान मनमाने और ऊटपटाँग नहीं हैं, शास्त्र के अनुकूल हैं।”

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