आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य का इतिहास भक्तिकाल नोट्स

 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल कृत "हिंदी साहित्य के इतिहास" से





 भक्तिकाल
 


शुक्ल जी ने भक्तिकाल (पूर्व-मध्यकाल) का समय संवत् 1375 से 1700 (सन् 1318 ई. से 1643 ई. तक) तक माना है

भक्तिकाल का विभाजन इस प्रकार किया है। यही विभाजन सर्वमान्य है 

                            

                             भक्तिकाल

        निर्गुण धारा                            सगुण धारा

    • ज्ञानाश्रयी (संत शाखा)।            रामभक्ति शाखा

   • प्रेममार्गी ( सूफी शाखा)।            कृष्णभक्ति शाखा


 इस काल को छ: प्रकरणों में इस प्रकार बाँटा गया है-


• प्रकरण-1: सामान्य परिचय 

 प्रकरण-2: निर्गुण धारा ज्ञानाश्रयी शाखा

• प्रकरण-3: निर्गुण धारा प्रेममार्गी (सूफी) शाखा

• प्रकरण-4: सगुण धारा रामभक्ति शाखा

• प्रकरण-5: सगुण धारा कृष्णभक्ति शाखा

• प्रकरण-6: सगुण धारा भक्तिकाल को फुटकल रचनाएँ


प्रकरण-1 (सामान्य परिचय)

• इस प्रकरण में शुक्ल जी ने भक्ति काल के उदय को व्याख्या करते हुए उसको सामान्य प्रवृत्तियों का संक्षिप्त विवरण दिया है।

भक्तिकाल की राजनीतिक परिस्थितियाँ इस प्रकार थीं- "देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिये वह अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देवमूर्तियाँ तोड़ी जाती थीं और पूज्य-पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो वे गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे। आगे चलकर जब मुस्लिम-साम्राज्य दूर तक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले स्वतंत्र राज्य भी नहीं रह गए। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जनसमुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिये भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था?"

  •"भक्तिकाल की धार्मिक स्थिति के विषय में लिखा है-" वज्रयानी सिद्ध, कापालिक आदि देश के पूर्वी भागों में और नाथपंथी जोगी पश्चिमी भागों में रमते चले आ रहे थे। इसी बात से इसका अनुमान हो सकता है कि सामान्य जनता की धर्मभावना कितनी दबती जा रही थी, उसका हृदय धर्म से कितनी दूर हटता चला जा रहा था।

• 'भक्ति' के संदर्भ में दक्षिण व उत्तर भारत का संबंध

• "भक्ति का जो सोता दक्षिण की ओर से धीरे-धीरे उत्तर भारत की ओर पहले से ही आ रहा था उसे राजनीतिक परिवर्तन के कारण शून्य पड़ते हुए जनता के हृदय क्षेत्र में फैलने के लिये पूरा स्थान मिला।"

• "भक्ति के आंदोलन की जो लहर दक्षिण से आयी उसी ने उत्तर भारत की परिस्थिति के अनुरूप हिंदू-मुसलमान दोनों के लिये एक सामान्य भक्तिमार्ग की भावना कुछ लोगों में जगाई।"


धर्म/साधना के विषय में शुक्ल जी के कुछ महत्त्वपूर्ण मत


• "धर्म का प्रवाह कर्म, ज्ञान और भक्ति, इन तीन धाराओं में चलता है। इन तीनों के सामंजस्य से धर्म अपनी पूर्ण सजीव दशा में रहता है। किसी एक के भी अभाव से वह विकलांग रहत्ता है। कर्म के बिना वह लूला-लंगड़ा, ज्ञान के बिना अंधा और भक्ति के बिना हृदयविहीन क्या, निष्प्राण रहता है। ज्ञान के अधिकारी तो सामान्य से बहुत अधिक समुन्नत और विकसित बुद्धि के कुछ थोड़े से विशिष्ट व्यक्ति ही होते हैं। कर्म और भक्ति ही सारे जनसमुदाय की संपत्ति होती है।"

• "साधना के जो तीन अवयव कर्म, ज्ञान और भक्ति-कहे गए हैं, वे सब काल पाकर दोष ग्रस्त हो सकते हैं। 'कर्म' अर्थशून्य विधि-विधानों से निकम्मा हो सकता है, 'ज्ञान' रहस्य और गुह्य की भावना से पाखंडपूर्ण हो सकता है और 'भक्ति' इंद्रियोपभोग की वासना से कलुषित हो सकती है। भक्ति की निष्पत्ति श्रद्धा और प्रेम के योग से होती है। जहाँ श्रद्धा या पूज्यबुद्धि का अवयव- जिसका लगाव धर्म से होता है छोड़कर केवल प्रेमलक्षणा भक्ति ली जाएगी वहाँ वह अवश्य विलासिता से ग्रस्त हो जाएगी।" 

 •"साधना के क्षेत्र में जो ब्रह्म है साहित्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।" 

• "हिंदी साहित्य के आदिकाल में कर्म तो अर्थशून्य विधि-विधान, तीर्थाटन और पर्वस्नान इत्यादि के संकुचित घेरे में पहले से बहुत कुछ बद्ध चला आता था। धर्म की भावनात्मक अनुभूति या भक्ति, जिसका सूत्रपात महाभारतकाल में और विस्तृत प्रवर्तन पुराणकाल में हुआ था, कभी कहीं दबती, कभी कहीं उभरती किसी प्रकार चली भर आ रही थी।"

• सिद्धों नाथों की 'कर्म' संबंधी अवधारणा को आलोचना करते हुए लिखा है- "उनका उद्देश्य 'कर्म' को उस तंग गड्ढे से निकालकर प्रकृत धर्म के खुले क्षेत्र में लाना न था बल्कि एकबारगी किनारे धकेल देना था। जनता की दृष्टि को आत्मकल्याण और लोककल्याण विधायक सच्चे कर्मो की ओर ले जाने के बदले उसे वे कर्मक्षेत्र से ही हटाने में लग गए थे। उनकी बानों तो 'गुह्य, रहस्य और सिद्धि' लेकर उठी थी। अपनी रहस्यदर्शिता की धाक जमाने के लिये बाह्य जगत की बातें छोड़ घट के भीतर के कोठों की बातें बताया करते थे। भक्ति, प्रेम आदि हृदय के प्रकृत भावों का अतस्साधना में कोई स्थान न था।" 

• "मंत्र, तंत्र, उपचार और अलौकिक सिद्धियों आदि के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को लक्ष्य करते हुए तुलसीदास ने लिखा है- गोरख जगायो जोग, भगति भगायो लोग।"


• "कालदर्शी भक्त कवि जनता के हृदय को सँभालने और लीन रखने के लिये दबी हुई भक्ति को जगाने लगे। क्रमशः भक्ति का प्रवाह ऐसा विकसित और प्रबल होता गया कि उसकी लपेट में केवल हिंदू जनता ही नहीं, देश में बसने वाले सहृदय मुसलमानों में से भी न जाने कितने आ गए। प्रेमस्वरूप ईश्वर को आगे लाकर भक्त कवियों ने हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को मनुष्य के सामान्यरूप में दिखाया और भेदभाव के दृश्यों को हटाकर पीछे कर दिया।"

• "देश में सगुण और निर्गुण नाम से भक्तिकाव्य की दो धाराएँ विक्रम की 15वीं शताब्दी के अंतिम भाग से लेकर 17वीं शताब्दी के अंत तक समानांतर चलती रहीं।"

• "निर्गुण धारा को दो शाखाओं में विभक्त किया गया है- 'ज्ञानमार्गी शाखा' और 'शुद्ध प्रेममार्गी शाखा' (सूफियों की)।"


ज्ञानाश्रयी शाखा के संदर्भ में कुछ महत्त्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं


• "नामदेव की रचना के आधार पर यह कहा जा सकता है कि 'निर्गुणपंथ' के लिये मार्ग निकालने वाले नाथपंथ के योगी और भक्त नामदेव थे। जहाँ तक पता चलता है, 'निर्गुण मार्ग' के निर्दिष्ट प्रवर्तक कबीरदास ही थे।"

• "यह शाखा भारतीय ब्रह्मज्ञान और योगसाधना को लेकर तथा उसमें सूफियों के प्रेमतत्त्व को मिलाकर उपासना-क्षेत्र में अग्रसर हुई और सगुण के खंडन में उसी जोश के साथ तत्पर रही जिस जोश के साथ पैगंबरी मत बहुदेवोपासना और मूर्तिपूजा आदि के खंडन में रहते हैं।"

• "इस शाखा की रचनाएँ साहित्यिक नहीं हैं- फुटकल दोहों या पदों के रूप में हैं जिनको भाषा और शैली अधिकतर अव्यवस्थित और ऊटपटाँग है। कबीर आदि दो-एक प्रतिभा संपन्न संतों को छोड़कर औरों में ज्ञानमार्ग की सुनी-सुनाई बातों का पिष्टपेषण तथा हठयोग की बातों के कुछ रूपक भद्दी तुकबदियों में हैं।”


• "भक्तिरस में मग्न करने वाली सरसता भी बहुत कम पाई जाती है। बात यह है कि इस पंथ का प्रभाव शिष्ट और शिक्षित जनता पर नहीं पड़ा, क्योंकि उसके लिये न तो इस पंथ में कोई नई बात थी, न नया आकर्षण। संस्कृत बुद्धि, संस्कृत हदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं पाया जाता जो शिक्षित समाज को अपनी ओर आकर्षित करता।


"अशिक्षित और निम्न श्रेणी की जनता पर इन संत-महात्माओं का भारी उपकार है। उच्च विषयों का कुछ आभास देकर, आवरण की शुद्धता पर जोर देकर, आडंबरों का तिरस्कार करके, आत्मगौरव भाव उत्पन्न करके, इन्होंने इसे ऊपर उठाने का स्तुत्य प्रयत्न किया। पाश्चात्यों ने इन्हें जो 'धर्मसुधारक' की उपाधि दी है, वह इसी बात को ध्यान में रखकर।"


प्रेमगाथा लिखने वाले शुद्ध प्रेममार्गी सूफी कवियों के विषय में ये बातें कही गई हैं


• "इनकी प्रेमगाथाएँ वास्तव में साहित्य कोटि के भीतर आती हैं।"

• "इस शाखा के सब कवियों ने कल्पित कहानियों के द्वारा प्रेममार्ग का महत्त्व दिखाया है। इन साधक कवियों ने लौकिक प्रेम के बहाने उस 'प्रेमतत्त्व' का आभास दिया है जो प्रियतम ईश्वर से मिलानेवाला है।"

• "इन प्रेम कहानियों का विषय तो वही साधारण होता है अर्थात् किसी राजकुमार का किसी राजकुमारी के अलौकिक सौंदर्य की बात सुनकर उसके प्रेम में पागल होना और घर-बार छोड़कर निकल पड़ना तथा अनेक कष्ट और आपत्तियाँ झेलकर अंत में उस राजकुमारी को प्राप्त करना। पर 'प्रेम की पीर' की जो व्यंजना होती है, वह ऐसे विश्वव्यापक रूप में होती है कि वह प्रेम इस लोक से परे दिखाई पड़ता है।"

• "सूफी कवियों ने जो कहानियाँ ली हैं वे सब हिंदुओं के घर में बहुत दिनों से चली आती कहानियाँ हैं जिनमें आवश्यकतानुसार उन्होंने कुछ हेर-फेर किया है। कहानियों का मार्मिक आधार हिंदू है। मनुष्य के साथ पशु-पक्षी और पेड़-पौधों को भी सहानुभूति सूत्र में बद्ध दिखाकर एक अखंड जीवन समष्टि का आभास देना हिंदू प्रेम-कहानियों की विशेषता है। मनुष्य के घोर दुःख पर वन के वृक्ष भी रोते हैं, पक्षी भी संदेसे पहुँचाते हैं। यह बात इन कहानियों में मिलती है।"

• "शिक्षितों और विद्वानों की काव्यपरंपरा में यद्यपि अधिकतर आश्रयदाता राजाओं के चरितों और पौराणिक या ऐतिहासिक आख्यानों की ही प्रवृत्ति थी, पर साथ ही कल्पित कहानियों का भी चलन था, इसका पता लगता है।" जैसे-ईश्वरदास की 'सत्यवती कथा'।

• "दिल्ली के बादशाह सिकन्दरशाह (संवत् 1546-1574) के समय में कवि ईश्वरदास ने 'सत्यवती कथा' नाम की एक कहानी दोहे, चौपाइयों में लिखी थी जिसकी आरंभ तो व्यास-जनमेजय के संवाद से पौराणिक ढंग पर होता है, पर जो अधिकतर कल्पित, स्वच्छंद और मार्मिक मार्ग पर चलने वाली है।"


सूफियों के 'रहस्यवाद' के विषय में लिखा है


• "बीच-बीच में रहस्यमय परोक्ष की ओर जो मधुर संकेत मिलते हैं, वे बड़े हृदयग्राही होते हैं। कबीर में जो रहस्यवाद मिलता है वह बहुत कुछ उन पारिभाषिक संज्ञाओं के आधार पर है जो वेदांत और हठयोग में निर्दिष्ट हैं। पर इन प्रेम-प्रबंधकारों ने जिस रहस्यवाद का आभास बीच-बीच में दिया है, उसके संकेत स्वाभाविक और मर्मस्पर्शी हैं।"

• "अपना भावात्मक रहस्यवान लेकर सूफी जब भारत आए तब यहाँ उन्हें केवल साधनात्मक रहस्यवाद योगियों, रसायनियों और तांत्रिकों में मिला। रसेश्वर दर्शन का उल्लेख माधवाचार्य विद्यारण्य के 'सर्वदर्शन संग्रह' में है।"

"जायसी आदि सूफी कवियों ने हठयोग व रसायन की कुछ बातों को भी अपनी कहानियों में स्थान दिया है।" अर्थात् उनके यहाँ भावात्मक व साधनात्मक, दोनों रहस्यवादों का निर्वहन है।


आचार्य शुक्ल ने रहस्यवाद के दो भेद किये हैं 

1. साधनात्मक रहस्यवाद

2. भावात्मक रहस्यवाद


जिस रहस्यवाद का आधार योग है वह साधनात्मक रहस्यवाद है और जिसका आधार भक्ति या सूफी प्रेम सिद्धांत है वह भावात्मक रहस्यवाद है।


साधनात्मक रहस्यवाद में योग के अप्राकृतिक और जटिल आसन, कर्म-कांड, तप और कायाकष्ट, बरबस इन्द्रियों का दमन आदि हैं। इस प्रकार साधक मन अव्यक्त तथ्यों का साक्षात्कार तथा अनेक अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त करता हुआ भगवान के निकट पहुँचने का प्रयत्न करता है। तंत्र व रसायन भी साधनात्मक रहस्यवाद के अंतर्गत आते हैं पर उनका स्तर अपेक्षाकृत निम्न है।


भावात्मक रहस्यवाद की कई श्रेणियाँ हैं जिनमें से किसी एक रहस्य भावना को आधार मानकर भक्त सरल एवं मधुर भाव से श्रद्धारत होता है। भक्त और साधक में अगाध विश्वास तथा आत्म समर्पण की भावना प्रबल रहती है। इस रहस्यवाद के अंतर्गत अद्वैत ब्रह्म की ही कल्पना होती है।


रसेश्वरदर्शनः शैव दर्शन प्रमुख शाखा 'पशुपत' के छः उपभागों में से एक है। यह दर्शन इस सिद्धांत पर आधारित है कि शरीर को अमर बनाए बिना मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता तथा अमरत्व की प्राप्ति केवल 'पारे' (पारद) के माध्यम से संभव है। शैव दर्शन में रसेश्वर अर्थात् पारे को शिव का वीर्य व गंधक को पार्वती का रज माना गया है। इनके सृजनात्मक मिलन से ही अमर शरीर की उत्पत्ति संभव है। यह अद्वैत दर्शन का पोषक है। संवत् की दसवीं शताब्दी में 'सोमानंद' ने 'शिवदृष्टि' ग्रंथ में इसकी विशद व्याख्या की। यह प्रमुख छः दर्शनों में सम्मिलित नहीं है। (जायसी के पद्मावत में रसेश्वर दर्शन भी मिलता है।)


सर्वदर्शन संग्रहः यह माधवाचार्य विद्यारण्य द्वारा रचित ग्रंथ है। इसमें माधवाचार्य ने सोलह दर्शनों का वर्णन किया है, जिनमें 'रसेश्वर दर्शन' भी एक है। (माधवाचार्य, द्वैतवाद के प्रवर्तक मध्वाचार्य से भिन्न हैं।)


विभिन्न धाराओं की 'कर्म' संबंधी अवधारणा के विषय में लिखा है- "

कबीर तथा अन्य निर्गुणपंथी संतों के द्वारा अंतस्साधना में रागात्मिका 'भक्ति' और 'ज्ञान' का योग तो हुआ, पर 'कर्म' की दशा वही रही जो नाथथियों के यहाँ थी। इन संतों के ईश्वर ज्ञान-स्वरूप और प्रेम-स्वरूप ही रहे, धर्म-स्वरूप न हो पाए। ईश्वर के धर्म-स्वरूप को लेकर, उस स्वरूप को लेकर, जिसकी रमणीय अभिव्यक्ति लोक की रक्षा और रंजन में होती है, प्राचीन वैष्णव

भक्तिमार्ग की रामभक्ति शाखा उठी। कृष्णाभक्ति शाखा कंवल प्रेम-स्वरूप ही लेकर नई उमंग से फैली।" 


भक्तिकाल में मिलने वाले 'प्रेमतत्त्व' को लेकर लिखा है-


 •"कबीर का 'ज्ञानपक्ष' तो रहस्य और गुह्य की भावना से विकृत मिलेगा, पर सूफियों से जो प्रेमतत्व उन्होंने लिया वह सूफियों के यहाँ चाहे कामवासना ग्रस्त हुआ हो, पर 'निर्गुणपंच' में अविकृत रहा। यह निस्संदेह प्रशंसा की बात है। वैष्णवन की कृष्णभक्ति शाखा ने केवल प्रेमलक्षणा भक्ति ली, फल यह हुआ कि उसने अश्लील विलासिता को प्रवृत्ति जगायी। रामभक्ति शाखा में भक्ति सर्वांगपूर्ण रही; इससे वह विकृत न होने पाई। तुलसी की भक्ति पद्धति में कर्म (धर्म) और ज्ञान का पूरा सामंजस्य और समन्वय रहा।"


• "सगुणोपासक भक्त भगवान के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों को मानता है, पर भक्ति के लिये सगुण रूप ही स्वीकार करता है: निर्गुण रूप ज्ञानमार्गियों के लिये छोड़ देता है। सब सगुणमार्गी भक्त भगवान के व्यक्त रूप के साथ साथ उनके अव्यक्त और निर्विशेष रूप का भी निर्देश करते आए हैं जो बोधगम्य नहीं। वे अव्यक्त की ओर संकेत भर करते हैं, उसके विवरण में प्रवृत्त नहीं होते।"

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